स्मृति शेष : मिल्खा सिंह
कुछ लोग ऐसे होते हैं जो जीवन में ही व्यक्ति से विचार बन जाते हैं, महान बन जाते हैं और तो और इतिहास पुरुष बन जाते हैं। वह न केवल देश के भावी भविष्य के लिए प्रेरणा स्रोत होते हैं बल्कि उनके कारनामे इतिहास की किताबों में भी दर्ज हो जाते हैं।ऐसे ही अनूठे भारत मां के महान सपूत थे सरदार मिल्खा सिंह जिनका बीती 18 जून को कोरोना के चलते चंडीगढ़ स्थित पीजीआई में 91 वर्ष की आयु में निधन हो गया। खेलों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका कहें या योगदान का अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि उनको पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने 1962 में टोक्यो एशियाई खेलों में 100 मीटर की रेस में तबतक के स्वर्ण पदक विजेता पाकिस्तान के अब्दुल खलीक को हराने पर "दि फ्लांइग सिख" के नाम से नवाजा था। वह देश के पहले एथलीट थे जिन्होंने दुनिया में भारत का परचम लहराया था।
मिल्खा सिंह को उनकी अद्वितीय तेज दौड़ने की गति के लिए जाना जाता है। उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण क्षण वह था जब उन्होंने पटियाला में हुए 1956 के राष्ट्रीय खेलों में अपना लोहा मनवा कर यह साबित किया कि रेस के मैदान में अब उनका कोई सानी नहीं है। और यह उन्होंने 1958 में कटक में हुए राष्ट्रीय खेलों में 200 और 400 मीटर की दौड़ में सारे रिकार्ड तोड़ कर साबित भी कर दिखाया। उन्होंने मेलबर्न ओलंपिक में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया था लेकिन उसमें कामयाबी हासिल न हो पायी। 1958 के रोम में हुए ओलम्पिक में 400 मीटर की दौड़ में और 1958 के राष्ट्रमंडल खेलों में भी 400 मीटर की ही दौड़ में स्वर्ण पदक जीतकर खेलों के इतिहास में दुनिया में भारत का नाम ऊंचा किया। इस उपलब्धि पर भारत के राष्ट्रपति द्वारा 1959 में मिल्खा सिंह को पद्मश्री से सम्मानित किया गया। यही नहीं सेना में भी उनकी पदोन्नति कर उनको जेसीओ भी बना दिया गया।
दरअसल उनके नाम रिकार्डों, सम्मानों, पुरस्कारों और पदकों की भरमार है। 1958 के एशियाई खेलों में 200 मीटर और 1962 में हुए एशियाई खेलों में 4 x 400 रिले रेस में और 400 मीटर की दौड़ में भी वह प्रथम रहे और स्वर्ण पदक हासिल किया। 1960 और 1964 के ओलम्पिक खेलों में भी उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व कर रिकार्ड स्थापित किया। 1964 के कोलकाता में हुए राष्ट्रीय खेलों में 400 मीटर का रिकार्ड आज भी लोग नहीं भूले हैं। राष्ट्र मंडल खेलों में तो व्यक्तिगत स्वर्ण पदक जीतने का गौरव पाने वाले वह पहले भारतीय खिलाडी़ रहे। इस अवसर पर प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने एक दिन के राष्ट्रीय अवकाश की घोषणा की थी। 1959 में इंडोनेशिया में हुए एशियाई खेलों में उन्होंने 400 x4 मीटर की रेस में स्वर्ण पदक हासिल किया। उनकी खेल प्रतिभा से प्रभावित होकर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने प्रशंसा करते हुए कहा था कि मिल्खा सिंह भारतीय खिलाडि़यों के प्रेरणा स्रोत हैं।
सच तो यह है कि दुनिया के इस महान खिलाडी़ के जन्म के बारे में अलग- अलग दावे किये जाते हैं। पाकिस्तान के रिकार्ड के अनुसार मिल्खा सिंह का जन्म 20 नवम्बर 1929 को फैसलाबाद में हुआ था जबकि कुछ इनका जन्म 8 अक्टूबर 1935 को लायलपुर में हुआ मानते हैं। विभाजन की त्रासदी से वह काफी दुखी थे। कारण उन्होंने 12 वर्ष की अल्पायु में ही अपने माता-पिता सहित परिवार के कई सदस्यों को खोया था। भारत विभाजन के बाद वह भारत आ गये और दिल्ली में शाहदरा इलाके में आकर रहने लगे। सेना में जाने की इच्छा उनकी बचपन से ही थी। इसके लिए उन्होंने लगातार कोशिशें कीं लेकिन इसमें तीन बार वह नाकाम रहे लेकिन चौथी बार 1952 में उन्हें कामयाबी मिली और सेना की इलैक्ट्रीकल कोर में वह भर्ती हो गये। यहीं उनके कोच हवलदार गुरदेव सिंह ने उनकी खेल खासकर दौड़ के प्रति रूचि को देखकर प्रोत्साहित किया और लगातार प्रेरित करते रहे। दौड़ के प्रति उनका जुनून इसी बात से पता चल जाता है कि ट्रेनिंग के दौरान जब दूसरे साथी बैरक में आराम करते या दूसरे कामों में व्यस्त होते तो उस समय मिल्खा सिंह ट्रेन के साथ दौडा़ करते थे। उनकी इस लगन को देख कर गुरुदेव सिंह बेहद खुश होते थे। जब जब दौड़ की चर्चा होती थी तो मिल्खा सिंह गुरूदेव सिंह का नाम लेना कभी नहीं भूलते थे। उनका कहना था कि मेरे जीवन की सबसे बडी़ गलती रोम ओलंपिक में दौड़ते हुए पीछे मुड़कर देखना था। इसका परिणाम यह हुआ कि मेरा प्रतिद्वन्दी कुछ सैकिंड के अंतराल के चलते मुझसे आगे निकल गया। यदि उस समय मैंने पीछे मुड़कर ना देखा होता तो विजयश्री मेरे हाथ होती। उन्होंने अपने जीवन में 77 रेस जीतीं लेकिन रोम की हार का दुख उन्हें आखिरी दम तक सालता रहा। वह बात दीगर है कि उन्होंने इस दौड़ में पिछले 40 सालों का रिकार्ड तोड़ इतिहास रचा था।
जहां तक उनके पारिवारिक जीवन का सवाल है, उनका विवाह उस समय की प्रख्यात खिलाडी़ और देश की वालीबाल टीम की कप्तान रहीं निर्मल कौर से 1962 में हुआ। उनकी तीन बेटियां व जीव मिल्खा सिंह नाम का एक बेटा है जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर का ख्याति प्राप्त पेशेवर गोल्फर है और पद्मश्री से सम्मानित हैं। यह कितना बडा़ अभूतपूर्व संयोग है कि पिता-पुत्र दोनों ही पद्मश्री से सम्मानित हैं। मिल्खा सिंह ऐसे खिलाडी़ रहे जिन्होंने जीवन में मिले सम्मानों, पुरस्कारों, पदकों को राष्ट्र की सम्पत्ति माना और सभी को राष्ट्र को समर्पित कर दिया। उनको मिले सम्मानों-पदकों-पुरस्कारों को भारत सरकार ने पहले तो दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में दर्शनार्थ रखा, फिर पंजाब में पटियाला स्थित खेल संग्रहालय में दर्शनार्थ रखवा दिया गया। यही नहीं यहां पर रोम ओलंपिक में पहने गये जूतों को भी सहेज कर रखा गया है। 1960 ओलंपिक में उन्होंने जिन एडिडास के जूतों को पहना था, उनको उन्होंने 2012 में चैरिटी के लिए नीलामी हेतु दान कर दिया गया था।
सेना से अवकाश के बाद उनको पंजाब का खेल निदेशक बनाया गया था जहां से वह 1998 में रिटायर हुए। खेल निदेशक रहने के दौरान और उसके बाद तक वह युवाओं को खेल के प्रति न केवल प्रोत्साहित करते रहे, उन्हें प्रशिक्षण देते रहे और उनके विकास हेतु हरसंभव सहयोग-समर्थन भी देते रहे। वर्ष 2012 में उनको देश के सर्वश्रेष्ठ धावक की उपाधि से सम्मानित किया गया। वह दुनिका के अकेले ऐसे धावक हैं जिनके नाम दुनिया के 20 पदक दर्ज हैं। उनके ऊपर एक फिल्म भी बनी है। उन्होंने अस्पताल जाने से पहले पीटीआई से कहा था कि- "चिंता मत करो, मैं ठीक हूं, मैं हैरान हूं कि मुझे कोरोना कैसे हो गया। उम्मीद है कि मैं जल्दी ही अच्छा हो जाउंगा।" लेकिन विधि को कुछ और ही मंजूर था और उड़न सिख हमेशा हमेशा के लिए हमें छोड़कर चला गया। आज वह हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके जीवन के संघर्षों की नींव पर बनी उपलब्धियों की एक ऐसी अमर दास्तान है जिसने उन्हें भारतीय खेलों का इतिहास पुरुष बना दिया है। उनका नाम खेलों के इतिहास में सदा अमर रहेगा और स्वर्णाच्छरों में लिखा जायेगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)
लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं)