पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान
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भारत ने अपनी आजादी के साठ वर्ष पूरे कर लिये और इन साठ वर्षों में भारत में बहुत कुछ बदला। सांस्कृतिक, आर्थिक एंव सामाजिक परिदृश्यों में परिवर्तन आया, विशेषकर आर्थिक परिदृश्य में। बदलाव की बयार में आमजन की परिस्थितियों में भी परिवर्तन हुआ। अच्छी चिकित्सकीय सेवा, खाद्यान्न उपलब्धता, आर्थिक सुदृढ़ीकरण ने जीवन प्रत्याशा को बढ़ा दिया, जिसका परिणाम रहा भारत में बुजुर्गों की संख्या में बढ़ोत्तरी। यह कटु सत्य है कि बदलते सामाजिक परिवेश में ‘वृद्धावस्था’ मानव जीवन की सबसे बडी त्रासदी है। क्योंकि यही वह अवस्था है, जब अपने भी मुंह फेर लेते हैं और यहीं से वह संघर्ष शुरू होता है, जिसमें व्यक्ति एकदम अकेला होता है।
यहां के हर इंसान के मन में यह बात बैठी होती है कि जिस प्रकार से वह अपने बच्चों की देखभाल कर रहा है, वृद्धावस्था में उसके यही बच्चे उसकी इसी प्रकार देखभाल करेंगें। पहले ऐसा होता था, लेकिन जैसे-जैसे परिस्थितियां बदलती गयीं, वैसे-वैसेे अतीत काल की यह अवधारणा टूटती चली गई। वृद्ध का अर्थ है- ‘बुद्धि से सम्पन्न, बुद्धि से युक्त। बुद्धि से सम्पन्न’ यह बुद्धि आयु की भी हो सकती है और विद्या, धर्म अथवा अनुभव की भी। इसलिए जिस व्यक्ति में आयु, विद्या धर्म अथवा अनुभव की वृद्धि हो रही है वही वृद्धता का लक्षण है, मात्र आयु का ही अधिक हो जाना वृद्ध नहीं है।
बल्कि एक पूर्णवृद्ध के परिवेश में आयु वृद्ध, ज्ञान वृद्ध और अनुभव वृद्ध का संयोग होता है। पिछले कुछ दशकों से समाज के अन्दर अनेक परिवर्तन हुए तथा इन परिवर्तनों के कारण अनेक समस्या का उदय भी हुआ। इन नई समस्याओं में एक प्रमुख समस्या हमारे सामने समाज में वृद्धजनों की समस्या है जो दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इस समस्या का सबसे दुःखद व चिंतनीय पहलू यह है कि जिन वृद्ध महिलाओं तथा पुरुषों को परिवार के अन्दर भरपूर सम्मान प्राप्त होता था, जिनकी मर्जी के बिना परिवार में पत्ता तक नही हिलता था, वही वृद्धजन आज उपेक्षा व उत्पीड़न के शिकार हो चले है। आज परिवार के अन्दर न केवल उन्हें उपेक्षित किया जा रहा है, उनका शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न किया जा रहा है, वे लोग अपना मानसिक दर्द, अपनी पीड़ा, अपनी व्यथा दूसरे को बता नही पाते। क्योंकि उनकी उपेक्षा और उनका उत्पीड़न करने वाला कोई और नहीं उनके बेटे व पारिवारिक जन हैं। अपने बेटों से छिपाकर या उनकों बगैर जानकारी दिए बैंकों तथा विभिन्न संस्थाओं में धन जमा करना तो साधारण बात है।
इसकी जानकारी बेटों को न हो ताकि वह समय-कुसमय पैसे की मांग न कर सके। दूसरा कारण उनकी अपनी आर्थिक सुरक्षा के लिए वे यह आवश्यक समझते हैं कि जब तक उनका स्वंय का जीवन है उन्हें अपने खर्चो के लिए बेटों के सामने हाथ न फैलाना पड़े। जीवन के अंतिम पड़ाव की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कितना धन संचित करना आवश्यक है। यद्यपि इस प्रश्न का कोई उतर नही है क्योंकि दिन-प्रतिदिन बढ़ती हुई मंहगाई तथा स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के लिए कितनी धन राशि प्राप्त होगी इसका पहले से तय करना संभव नही है। फिर भी हर व्यक्ति को चाहिए की वह भविष्य के लिए कुछ धन की व्यवस्था अवश्य करे। कई समस्याओं के लिए हमारे बुजुर्ग स्वंय भी उत्तरदायी हैं। समस्याएं उनके स्वंय के व्यवहार, बर्ताव, व्यक्तित्व, रूढ़िवादी या परम्परावादी होने के कारण जन्म लेती हैं।
उदाहरण के लिए जो परिवार बड़े हैं या वे पिता या माता जिनके एक से अधिक बेटेे हैं वहां देखा गया है कि वे किसी एक बेटे को अधिक चाहते हैं। परिणाम यह होता है कि दूसरे बेटे-बहू चिढ़ने लगते है और उनकी उपेक्षा करने लगते हैं। एक वृद्ध व युवा के विचारों में बहुत अन्तर होता है क्योंकि दोनों अलग-अलग तरीके से सोचते हैं। जहां एक तरफ वृद्ध स्वंय को तजुर्बेकार महसूस करता है तो वहीं युवा स्वंय को ऊर्जावान महसूस करता है। यही ऊर्जा मनुष्य में अहम् का रोपण करती है। वृद्ध स्वंय को घर का सबसे जिम्मेदार व समझदार व्यक्ति समझता है। अतः उसको बिल्कुल भी अच्छा नही लगता है कि उसकी उपेक्षा की जाय तथा यह उपेक्षा उसके लिए असहनीय हो जाती है। शारीरिक समस्या के साथ ही ढलती उम्र के कारण वृद्ध कई शारीरिक व्याधि का शिकार हो जाता है तथा उसकी कार्य क्षमता भी क्षीण होने लगती है। अतः उसे बात-बात पर युवा पर निर्भर रहना पड़ता है। जो युवा को नागवार गुजरता है। कई बार परिस्थितियां विपरीत बन जाती हैं।
अर्थात वृद्ध अपने आप को वृद्ध मानने के लिए तैयार नहीं होता है। उसे लगता है कि वह आज भी ताकत के साथ काम कर सकता है, किन्तु वास्तविकता उनसे विपरीत होती है। दूसरी परेशानी उसके ढ़लते स्वास्थ्य के कारण उलझन हो जाती है। उम्र के साथ जोड़ों में दर्द शारीरिक कमजोरी, शरीर में कम्पन जैसे स्थितियां हो जाती है। जिसके कारण वह परिवार की सहानुभूति चाहता है। आजकल वृद्धों से अपनी जान छुड़ाने के लिये पारिवारिक जन वृद्धों को वृद्धाश्रम केन्द्रों में रख देते है। यह समाज की गिरी हुई मानसिकता का परिचायक है। जो बुजुर्ग मां-बाप कितने कष्टों को सहकर अपने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर बड़ा कर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा कर दिये हैं, वही पुत्र जब वृद्धावस्था में मां-बाप को वृद्धावस्था केन्द्र में डालकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होेना चाहते है तो यह स्थिति उनके लिए असहनीय होती है। अतः पुत्र को अपनी जिम्मेदारी समझते हुए मां-बाप की सेवा करनी चाहिए। जिससे उन्हें कभी कष्ट न हो। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)