लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान
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वर्तमान युग विज्ञान का युग है। विज्ञान के साथ-साथ औद्योगिक विकास हुआ, तकनीकी का विकास हुआ। इस विकास के साथ मानसिक शान्ति का विकास नहीं हो सका। जितने सुविधा के साधन बढ़े हैं उसके अनुपात से कहीं अधिक मानसिक तनाव और उससे उत्पन्न होने वाली समस्याएं बढ़ी हैं। समाज में व्यसन और अपराध बढ़े हैं। यदि व्यसन में कमी आ जाती है तो अपराध और गरीबी में बहुत कमी आ सकती है। मेडिकल कौंसिल ऑफ ऑक्सफोर्ड के प्रेसिडेन्ट जनरल डाॅ. आकलैण्ड लिखते हैं- यदि शराब के बारे में किसी को मालूम न होता तो संसार के अपराधों की आधी मात्रा तथा गरीबी की बहुत बड़ी मात्रा दूर हो जाती। विद्या ही समस्त विकास का आधार है। विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय विद्या प्रदान करने वाले महान् संस्थान हैं। जहां जीवन निर्माण होता है, वहां भी जीवन विनाश के बीच, व्यसन तेजी से अपना पैर जमा रहे हैं। आज अपेक्षा है शिक्षा जगत् से कि वह ऐसी शिक्षा, संस्कार तथा व्यवस्था दे जिससे विद्यार्थी हर परिस्थिति में अपने व्यसन-मुक्त व्यक्तित्व को सुरक्षित रख सकें। स्वस्थ समाज का निर्माण तब तक नहीं हो सकता जब तक समाज व्यसन मुक्त नहीं हो जाता।
अनेक अपराध, हिंसा और कुकृत्यों का एक प्रमुख कारण है- नशा। अहिंसक समाज संरचना के लिए अपराध, हिंसा व आतंक में न्यूनता आये, यह सबसे बड़ी अपेक्षा है। इसका एक प्रमुख आधार है - व्यसन मुक्त समाज। शराब कितनी ही थोड़ी मात्रा में क्यों न पी जाए, वह मानसिक शान्ति को खराब कर देती है। वह दिमाग के स्नायु केन्द्रों को शून्य कर देती है जिससे बुद्धि की भले-बूरे की पहचान की क्षमता तथा सहनशक्ति जाती रहती है। व्यसन धीमा विष है, विष से भी भयंकर है। विष तो एक ही बार मारता है परन्तु व्यसन व्यक्ति को ही नुकसान नहीं पहुंचाता, वह परिवार, समाज व राष्ट्र के चरित्र को ठेस पहुंचाता है एवं तहस-नहस कर देता है। पारिवारिक शान्ति, सामाजिक विकास और राष्ट्रीय चरित्र में उत्थान के लिए व्यसन मुक्त समाज की ओर ध्यान देना आवश्यक है। शराब शारीरिक, मानसिक, नैतिक और आर्थिक दृष्टि से मनुष्य को बर्बाद कर देती है। शराब के नशे में मनुष्य दुराचारी बन जाता है एवं अफीम के नशे में वह सुस्त और मुर्दा बन जाता है। इस प्रकार व्यसन व्यक्तिगत स्तर पर शरीर, मन व भावों को प्रभावित करते हैं।
सामुदायिक स्तर पर परिवार, समाज व राष्ट्र को भी प्रभावित करते हैं। आर्थिक स्तर पर भी इससे व्यक्ति को हानि ही होती है। व्यसन से ग्रस्त व्यक्तियों में अनेक बार भयानक घातक बीमारियां भी हो जाती हैं। जैसे तम्बाकू का सेवन करने वाले व्यक्तियों के दांत, जबड़े, गला, होंठ, जीभ आदि अंग बूरी तरह से विकृत हो जाते हैं। अनेक व्यक्तियों की स्थिति ऐसी हो जाती है कि उनका चेहरा भी नहीं देख सकते। तम्बाकू चबाने से मुंह का कैंसर एवं गले का कैंसर भी हो सकता है। फेफड़ों के कैंसर से होने वाली 80 से 90 प्रतिशत मौते तम्बाकू से होती है। 65 वर्ष से कम आयु में दिल के दौरे से मरने वालों में 40 प्रतिशत धूम्रपान के कारण ही मरते हैं। शराब आदि मद्यपान करने वाले व्यक्ति यह तर्क देते हैं कि उन्हें पाचन में व मानसिक तनाव में राहत मिलती है। एकांगी व अल्पकालिक प्रभावों को देखते हुए यदा-कदा चिकित्सक भी सेवन की सलाह दे देते है किन्तु दीर्घकालिक व व्यापक दुष्परिणामों को देखते हुए उनकी सलाह कहां तक उचित है? वे स्वयं समझ सकते हैं।
जब व्यक्ति मद्यपान का गुलाम हो जाता है तब यकृत, आमाशय, व गुर्दे पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। वे खराब हो जाते हैं। शरीर दुर्बल हो जाता है। कार्यक्षमता घट जाती है। अनेक अकाल मृत्यु की गोद में चले जाते हैं। अफीम, गांजा, चरस, हेरोइन आदि का सेवन करने वाले व्यक्तियों की स्नायविक शक्ति दुर्बल हो जाती है। स्नायविक शक्ति को पुनः ठीक नहीं किया जा सकता। रोग-प्रतिरोधात्मक शक्ति भी क्षीण होती है और इससे व्यक्ति अकाल-मृत्यु से ग्रसित हो जाता है। युवा जो राष्ट्र के भावी कर्णधार है, उनमें नशे की बढ़ती प्रवृत्ति खेदजनक है। शैक्षणिक एवं सामाजिक उपायों द्वारा युवाओं को इससे बचाने का प्रयास किया जाना चाहिए। युवकों में जब नयी चेतना एवं राष्ट्रीय धारा को दिशा देने का सराहनीय कार्य होगा उनकी लगन स्वयं ही रचनात्मक कार्यों की और हो जायेगी। ऐसा नहीं किया जायेगा तो पूरा युवा वर्ग अन्दर से खोखला हो जायेगा। अगर वही खोखला और जर्जर हो जायेगा तो देश का क्या होगा।
नशीली एवं लत लगने वाली प्रायः वे दवाएं होती है जो मस्तिष्क पर अपने प्रभाव द्वारा चेतन अवस्था से अचेतन अवस्था में लाकर सुखानुभूति प्रदान करती है। ये दवाएं मनुष्य को वास्तविक धरातल से अवास्तविकता की और ले जाती है, जहां जीवन की सारी वास्तविकता शून्य हो जाती है। लत लगने वाली दवाएं जो दवा के रूप में समाज में आयी, वे लाभप्रद के स्थान पर हानिप्रद सिद्ध हो गयी। इसकी उपयोगिता निःसंदेह है पर इनकी लत मनुष्यों को अपने अधीन कर लेती है। पहले तो नशा मनुष्य के अधीन रहता है पर बाद में मनुष्य स्वयं उसका गुलाम बन जाता है। ज्यादातर दवाईयां मनुष्यों को उत्तेजित करती है और अन्त में मस्तिष्क को शिथिल कर देती है। ऐसी दवाओं के सेवन को यदि नहीं रोका गया तो समाज के लिए यह बहुत घातक सिद्ध होगी। जिस तनाव को दूर करने के लिए लोग नशे का सेवन करते है, वह तो दूर होता नहीं सामाजिक तिरस्कार और तनाव पैदा हो जाता है। अतः नशा को नाश का द्वार कहा जाना सही है। (लेखा का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)