लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान
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अहिंसा भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र है। अहिंसा सभी प्राणियों का हित करने वाली। अहिंसा मां के समान है। सभी धर्म ग्रन्थों में अहिंसा की महिमा का गुणगान है। अहिंसा जैन आचार शास्त्र का केन्द्रीय तत्त्व है। आगमां और तदुपजीवी प्रायः सभी ग्रन्थों में अहिंसा की महनीयता का वर्णन किया गया है। जैन श्रमण अहिंसा का सर्वश्रेष्ठ साधक है। वह मन, वाणी और काय से हिंसा नहीं करता, न करवाता है और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन ही करता है। किसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन नहीं करना चाहिए, उन पर शासन नहीं करना चाहिए, उन्हें दास नहीं बनाना चाहिए, उन्हें परिताप नहीं देना चाहिए और उनका प्राण वियोजन नहीं करना चाहिए। यह अहिंसा धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है। अर्हतों ने अहिंसा धर्म का सबके लिए प्रतिपादित किया है।
ज्ञानी पुरुष का यही उत्तम ज्ञान है कि वे किसी जीव की हिंसा नहीं करें, अहिंसा का तात्पर्य ही है कि ‘किसी जीव की हिंसा न करना’। जिसे इस अहिंसा सिद्धान्त का ज्ञान नहीं है, उसे किसी अन्य तत्त्व का ज्ञान नहीं हो सकता। मानव जीवन में प्रथम स्थान अहिंसा को दिया है। सभी जीवों के प्रति संयम रखना अहिंसा है। लोक में जितने भी त्रस या स्थावर प्राणी हैं, मानव जानते या अजानते उनका स्वयं हनन न करें और न ही दूसरों से हनन करावें, तथा हनन करने वाले का अनुमोदन भी न करें। सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं। इसलिए मानव प्राणिबध को घोर जानकर उसका परित्याग करें। प्रमत्तयोग से प्राणों का व्यपरोपण-वियोग करना हिंसा है। कषायसहित आत्मा का परिणाम प्रमत्त कहलाता है। इस प्रमत्त का योग अर्थात् कषाय सहित परिणामों से मन-वचन काय की क्रिया का योग प्रमत्तयोग है। सभी जीवों पर दया, करुणा का भाव होना अहिंसा है।
अहिंसा अपने अस्तित्व के प्रति जागरूक रहना है। साथ-साथ दूसरे जीवों के अस्तित्व के प्रति जागरूक होना भी है। यह जागरूकता आत्मतुला के सिद्धान्त से विकसित होती है। आत्मतुला का अर्थ है अपने समान अन्य जीवों को समझना। संसार में प्रत्येक मानव को सुख-दुःख का सम्वेदन प्रत्यक्ष होता है, इसलिए सुख-दुःख स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष है। दूसरे के सुख-दुःख की अनुभूति स्वसम्वेदन के आधार पर होती है। जैसे अपने को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है, वैसे ही दूसरों को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है। यह आत्मतुला का ज्ञान हिंसा विरति या अहिंसा का अवलम्बन बनता है। अहिंसा एक महान् मार्ग है। हर कोई मनुष्य इस मार्ग पर नहीं चल सकता। जो पराक्रमी, वीर होते हैं, वे ही इस महान् पथ के पथिक बनते हैं वीर पुरुष महापथ के प्रति समर्पित होते हैं। अहिंसा कायरों का मार्ग नहीं है, यह पराक्रमशालियों का मार्ग है। शान्ति की आराधना करने वाले जितने महापुरुष हुए हैं, वे सब इस महापथ पर चले हैं, चलते हैं और चलेंगे। फिर भी यह संकीर्ण नहीं होता। इसलिए यह महापथ कहलाता है। अहिंसा से तात्पर्य है- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस- ये छह कायिक जीव, इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणा, कुल, आयु और योनि- इनमें सब जीवों को जानकर उठने-बैठने-ठहरने आदि सभी क्रियाओं में हिंसा आदि का त्याग करना अहिंसा है।
अहिंसा परमधर्म है। जो अप्रमत्त है, वह अहिंसक है। जो प्रमत्त है, वह हिंसक है। अहिंसा के दो रूप हैं- निषेधात्मक और विधेयात्मक। निषेधात्मक रूप में किसी भी जीव का तीन करण और तीन योग से हिंसा न करना अहिंसा है। अहिंसा, हिंसा का अभाव है। अहिंसा का अर्थ है-हिंसा का न होना, हिंसा की भावनाएं और हिंसा जन्य क्रियाओं का अभाव होना। अहिंसा के इसी अर्थ में ‘सर्वप्राणातिपात विरमण’ शब्द का भी प्रयोग हुआ है। इसका अर्थ है ‘सभी प्रकार की जीवहिंसा से निवृत्ति। यह अर्थ, अहिंसा के निषेध-मूलक पक्ष को प्रगट करता है। वस्तुतः अहिंसा केवल निषेध में ही नहीं अपितु विधेयरूप में भी है। अहिंसा को पूर्णरूप से समझने के लिए उसके विधेयात्मक पक्ष को भी समझना होगा। अहिंसा के कार्य और अर्थ के आधार पर उसकी व्यापकता दिखायी गयी है। उनमें से अधिकांश अहिंसा के विधेयात्मक पक्ष को प्रगट करते हैं-जैसे-निर्वाण, समाधि, शान्ति, कीर्ति, दया, शांति, सम्यक्त्वाराधना बोधि, नन्दा, कल्याण, मंगल, रक्षा, शिव, अप्रमाद, विश्वास, पवित्रा, विमल, प्रभासा, निर्मलकर आदि अहिंसा के विधेयात्मक पक्ष को प्रगट करते हैं। भारतीय संस्कृति में अहिंसा के दोनों रूपों पर प्रकाश डाला गया है। अहिंसा का विधेयात्मक पक्ष भी जानना उतना महत्वपूर्ण है, जितना कि निषेधात्मक पक्ष को जानना।
यदि हम अहिंसा के निषेधात्मक पक्ष को ही अहिंसा मानकर बैठ जाते हैं तो यह अहिंसा की अपूर्ण समझ है। अहिंसा को पूर्णरूप से समझने के लिए उसके विधेयात्मक पक्ष का भी ज्ञान और आचरण आवश्यक है। भारतीय दर्षनों में मानवीय आचरण को नियन्त्रित करने के लिये दिशा निर्देश दिये गये हैं। यह निर्देश किसी एक व्यक्ति या किसी एक जाति के लिये नहीं अपितु समस्त प्राणिमात्र के लिये आचरणीय हंै। इसमें बहुजन सुखाय और बहुजन हिताय की कामना की गयी है--‘असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्माअमृतं गमयेति। अर्थात् मुझे असत् से सत् की ओर ले चलो, मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मुझे मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो। यह मानव की अनादिकालिक शाश्वतिक समीहा है। वैचारिक दृष्टि से यह बात निर्विवाद है कि मनुष्य समस्त प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ ज्ञानवान् एवं चिन्तनशील प्राणी है। उसे अपने स्वरूप एवं लक्ष्य दोनों की विधिवत् जानकारी है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)