स्मृति शेष : चला गया प्रख्यात वृक्ष मित्र बहुगुणा



लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं)

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गत  21  मई  को  प्रख्यात  पर्यावरणविद, गांधीवादी, चिपको आंदोलन के प्रणेता और सिल्यारा के संत के नाम से विख्यात पद्मविभूषित सुंदर लाल बहुगुणा का ऋषिकेश एम्स में निधन हो गया। उनका बीती 8मई से ऋषिकेश एम्स में इलाज चल रहा था लेकिन चिकित्सकों के काफी प्रयास के उपरांत उन्हें बचाया नहीं जा सका। दरअसल आज से करीब 94 साल पहले 9 जनवरी 1927 को हिमालय की तलहटी में टिहरी गढ़वाल में पहाड़ की चोटी पर बसे भागीरथी  के  किनारे  मरोड़ा गांव में तत्कालीन रियासत के वन अधिकारी के यहां जन्मे सुन्दर लाल बहुगुणा को पेड़ों से प्रेम विरासत में मिला। बीए आनर्स करने के बाद समाज विज्ञान में एम ए करने की इच्छा लेकर दिल्ली आए लेकिन डिग्री के बजाय समाज से सीधे जुड़ना उन्होंने अधिक श्रेयस्कर और व्यवहारिक समझा और वापस गांव लौट कर आजादी के बाद भी तब तक रियासत के खिलाफ लड़ते रहे जब तक कि रियासत का तख्ता उलट नहीं दिया। राजनीति के क्षेत्र में आने के लिए उन्हें श्रीदेव सुमन ने प्रेरित किया। 

बाद में यह सोचकर कि राजनीति की सीमाएं अत्यंत सीमित हैं, उन्होंने राजनीति छोड़ दी और बिनोबा जी के भूदान आंदोलन से जुड़ गए। शादी के बाद कुछ समय तक टिहरी के पास आश्रम बनाकर वहीं खेती, पशुपालन कर गुजारा करते रहे और बच्चों खासकर लड़कियों को निशुल्क शिक्षा देते रहे। इस बारे में उनका मानना रहा कि राजनीति में जन समस्याओं का हल नहीं है। यही प्रमुख कारण रहा कि बाद में मैं हिमालय के दूर-दराज के गांवों के लोगों की समस्याओं को दूर करने की गरज से उनके साथ जुड़ गया। चिपको आंदोलन के पीछे मेरा यह सोच था कि जंगल की उपज में वहां के स्थानीय लोगों को हिस्सा मिले। उस दौरान मैंने पाया कि पेड़ों को काटने से वह चाहे सरकार काटे या स्थानीय लोग अकेला हिमालयी क्षेत्र ही नहीं, वरन् पूरा देश तबाह हो रहा है और इसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती। तब मैंने उत्तराखंण्ड की 120 दिन की यात्रा की और कोहिमा से लेकर कश्मीर तक और नेपाल-भूटान सहित पूरे हिमालयी क्षेत्र की पैदल यात्रा की। टिहरी के जंगल में 26 दिन का अनशन किया। नतीजन 1979  में तत्कालीन जनता सरकार को हिमालयी क्षेत्र में हरे पेड़ों की कटाई पर रोक लगानी पड़ी जिसे बाद में इंदिरा गांधी की सरकार ने कानून का रूप देकर स्थायी बना दिया। धीरे-धीरे इस आंदोलन को न केवल समूचे विश्व में व्यापकता मिली बल्कि ख्याति भी मिली। साथ ही इसने समूची दुनिया में प्रकृति के संरक्षण का नया संदेश दिया।



टिहरी बांध विरोधी आंदोलन के नायक रहे सुन्दर लाल बहुगुणा को चिपको आंदोलन ने विश्व परिदृश्य पर  पर्यावरणवेत्ता के रूप में तो ख्याति दी ही, टिहरी बांध विरोधी आंदोलन ने उन्हें गरीबों के मसीहा के रूप में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निबाही। उनका कहना था कि बांध विरोधी आंदोलन अभी खत्म नहीं हुआ और न कभी होगा। क्योंकि दुनिया में  जब तक गरीबों को उजाड़ने वाले भीमकाय बांधों का निर्माण जारी रहेगा, आंदोलन भी जारी रहेंगे। हमारे आंदोलन ने एैसे बांधों के निर्माण के खिलाफ एक व्यापक जन चेतना जागृत की है, यह हमारे आंदोलन की सफलता का परिचायक ही तो है। बहुगुणा जी ने जीवन में दर्जन भर लम्बे उपवास किए और इतनी ही बार जेल यात्राएं भी कीं। वैसे तो उन्हें जमना लाल बजाज, शेर-ए-कश्मीर, सरस्वती सम्मान, राष्ट्रीय एकता पुरुस्कार, स्टाकहोम आदि बहुतेरे पुरस्कार मिले। फिर भी पदम विभूषण सम्मान और राइट लाइवली हुड आदि जैसे वैकल्पिक नोबेल कहे जाने वाले पुरस्कारों से सम्मानित बहुगुणा जी ने कभी भी न अपने लिए और न अपने आंदोलन के लिए ही सरकार या विदेशों से मदद ली। पत्रकारिता से होने वाली आय से ही उन्होंने अपनी परिवार की जरूरतें पूरी कीं और बची  सारी राशि आंदोलन में लगा दी। ऐसे आंदोलनकारी पर्यावरणवेत्ता विरले ही होते हैं। हृदय रोग से पीड़ित और उम्र के इस दौर में भी वह निरीह और बेजुबानों के हक के लिए गजब के उत्साह के साथ संघर्षरत रहे। वे कहते थे कि दुनिया में सबसे निरीह प्रकृति है। क्योंकि पेड़-पौधों और नदियां किसी को वोट नहीं देते, यही वजह है कि राजनेता इनकी फिक्र नहीं करते। लेकिन इनके लिए मैं आखिरी सांस तक लड़ूंगा।

सन 1949 में मीराबेन व ठक्कर बाप्पा के सम्पर्क में आने के बाद वे  दलित वर्ग के विद्यार्थियों के उत्थान के लिए प्रयासरत हो गए तथा उनके लिए टिहरी में ठक्कर बाप्पा होस्टल की स्थापना भी की। यह वह समय था जब उन्होंने दलितों को मंदिर प्रवेश का अधिकार दिलाने के लिए आन्दोलन किया। अपनी पत्नी श्रीमती विमला नौटियाल के सहयोग से उन्होंने सिलयारा में ही 'पर्वतीय नवजीवन म डल' की स्थापना की। सन 1979 में शराब की दुकानों को खोलने से रोकने के लिए उनका सोलह दिन तक किया गया अनशन काफी चर्चित रहा। चिपको आन्दोलन के कारण तो वह विश्वभर में वृक्षमित्र के नाम से प्रसिद्ध हो गए। उनके 'चिपको आन्दोलन' का घोषवाक्य था कि- "क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार। मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।"  उनका मानना था कि पेड़ों को काटने की अपेक्षा उन्हें लगाना अति महत्वपूर्ण है। उनके कार्यों से प्रभावित होकर अमेरिका की फ्रेंड ऑफ नेचर नामक संस्था ने1980 में इनको पुरस्कृत भी किया। असलियत में पर्यावरण को स्थाई सम्पति माननेवाला यह महापुरुष ’पर्यावरण  गाँधी’ के नाम से जाना गया। पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में बहुगुणा जी के कार्यों को इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा। वह अक्सर कहते थे कि प्रदूषण और उससे होने वाली तबाही के बारे में हम सभी बातें करते हैं। देश में बातें करने वालों की तो भरमार है लेकिन प्रदूषण की जड़ तक पहुंचकर उसको नाश करने की हिम्मत जुटाने की बारी आती है तो बहुत से लोग पीछे हट जाते हैं। आज भी गिनती के लोग ही हैं जो पर्यावरण सुरक्षा को अपना जीवन समर्पित करते हैं।

मां गंगा की दुर्दशा से वह काफी दुखी थे। सन्  1995 में जब वह टिहरी बांध के दैत्य से बचाने हेतु नदी तट पर अपना डेरा जमाये बैठे हुए थे, तब उन्होंने कहा था कि गंगा अब संकट में है। हमारी भोगवादी सभ्यता के कारण गंगा शोषण और प्रदूषण से ग्रस्त है। हम चाहते हैं गंगा को अविरल बहने दो। गंगा को निर्मल रहने दो। जब सारे देश से गंगा को बचाने के लिए आवाज उठेगी, तब ही सरकार इस पर विचार करेगी। सच तो यह है कि उन्होंने अपना सारा जीवन प्रकृति के लिए समर्पित कर दिया लेकिन दुख इस बात का है कि उनकी बातों को देश की सत्ता पर काबिज सरकारों ने गंभीरता से नहीं लिया और इस दिशा में अपने ही बनाये कानूनों को विकास की अंधी चाहत के चलते जमींदोज करने का काम किया। उनका हमेशा यह कहना रहा कि प्रकृति के साथ छेड़छाड़ के दुष्परिणाम हमें भोगने ही होंगे। मौजूदा हालात में पर्यावरण और पारिस्थितिकी की जो दुर्दशा है, वह उसी का जीता-जागता सबूत है।

बहुगुणा का दशकों पहले दिया गया सूत्रवाक्य ’धार  एंच  पाणी, ढाल पर डाला, बिजली बणावा खाला-खाला’ आज भी न सिर्फ पूरी तरह प्रासंगिक है, बल्कि आज इसे लागू करने की जरूरत और अधिक नजर आती है। उक्त सूत्रवाक्य का मतलब यह हुआ कि ऊंचाई वाले इलाकों में पानी एकत्रित करो और ढालदार क्षेत्रों में पेड़ लगाओ। इससे जल स्रोत रीचार्ज  रहेंगे और जगह-जगह जो जलधाराएं हैं, उन पर छोटी-छोटी बिजली परियोजनाएं बननी चाहिए। मुझे उनसे आखिरी बार भेंट का सुअवसर 2019 के मई में मिला। बातचीत में बहुगुणा  जी के सामने जैसे ही पर्यावरण का जिक्र आया, उनके चेहरे की रौनक बढ़ गयी थी। वह देखने लायक थी। वह उस समय शारीरिक रूप से भी काफी कमजोर हो चुके थे, उनकी नजर भी धुंधली पड़ चुकी थी और वह काफी धीमी आवाज में बात कर पाते थे। वह मानते थे कि आज पर्यावरण  संरक्षण के लिए सामूहिक प्रयास किए जाने की बेहद जरूरत है। आज उनका जाना वैश्विक पर्यावरण जगत के लिए तो अपूरणीय क्षति है ही, पर्यावरण कार्यकर्ता आज खुद को अनाथ अनुभव कर रहा है। इसमें दो राय नहीं।

आडम्बरों से कोसों दूर रहने वाले बहुगुणा जी का सारा जीवन सादगी और सरलता का जीवंत प्रमाण है। यह उनके विचारों और व्यक्तित्व में भी परिलक्षित होता था। आज हमने समूची दुनिया में प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण की अलख जगाने वाले अनूठे और अप्रतिम पर्यावरण योद्धा को खो दिया है। वह आज हमारे बीच सशरीर भले ना मौजूद हों, लेकिन उनके विचार और उनका बताया रास्ता हमारा मार्गदर्शन करता रहेगा। हम उनके बताये रास्ते पर चलकर उनके सपने को पूरा करने का प्रयास करें, यही उनको सच्ची श्रृद्धांजलि होगी।

सीधे सरल और मृदुभाषी,

वह खांटी गांधी वादी थे।

ग्राम्य सुलभ विनय के स्वामी,

असली ग्राम्य सुधारक थे।

भूदान यज्ञ के सहभागी वह,

लेखक चिंतक ऋषिवर थे।

पेडो़ं के रखवाले मित्र,

प्रकृति हितू यायावर थे।

बडे़ बांधों के प्रबल विरोधी,

टिहरी आंदोलन के नायक थे।

भारत मां के गौरव थे,

वह मानव नहीं, महामानव थे।


छोड़ गये हमको इस पार,

वह चले गये अम्बर उस पार।

अब हमको यह कौन पढा़येगा,

हरा-भरा तन हो धरती का,

वृक्ष रहेंगे धरती सुधरेगी,

प्रकृति बचेगी तो जग सुधरेगा।

अब कौन बहुगुणा आयेगा,

जो वृक्ष-मित्र कहलायेगा।

आज हिमालय हुआ उदास,

टूट गयी अब सबकी आस।

अब कौन बहुगुणा आयेगा,

जो हमको पाठ पढा़येगा।

जो वृक्ष मित्र कहलायेगा,

जो वृक्ष मित्र कहलायेगा...!!

(लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)