लेखक : लोकपाल सेठी
(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक मामलों के विश्लेषक)
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इसरो के पूर्व वैज्ञानिक, नम्बी नारायणन, जिन्हें 1994 में अन्तरिक्ष विज्ञान से जुडी गुप्त जानकारियों को विदेशी ताकतों के लिए चुराए जाने के झूठे मामलों में फंसाया गया था, साढ़े तीन दशक से न्याय तथा खोया हुआ सम्मान वापिस पाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। हालाँकि वे अब तक आधी से अधिक लड़ाई जीत चुके , लेकिन 80 वर्ष की उम्र में भी अभी उनका संघर्ष जारी है। अब वे केरल सरकार के उन पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कारवाई किये जाने की लड़ाई कर रहे है जिन्होंने उन्हें जासूसी के झूठे मामलों में फंसाया था। इसमें उनकी नौकरी तो गयी थी लेकिन एक जाने माने अन्तरिक्ष वैज्ञानिक के रूप में उन्होंने अपना सम्मान भी खो दिया था। केवल इतना ही नहीं उन्हें कुछ दिन तक जेल में भी रहना पड़ा था।
2018 में सर्वोच्च न्यायलय ने उनकी एक याचिका पर अवकाश प्राप्त न्यायधीश डी. के. जैन की अध्यक्षता में एक तीन सदस्यों सदस्यों वाली समिति का गठन किया था जिसका काम जासूसी मामलों के जाँच करने वाले केरल सरकार के उन पुलिस अधिकारिओं की भूमिका का पता लगाना था। उनकी गरिफ्तारी उस समय हुई थी जब इसरो में उनका काम अन्तरिक्ष में उपग्रह भेजे जाने के लिए स्वदेशी तकनीक पर आधारित विकास नाम का इंजिन विकसित करना था। इस इंजिन ने रूस द्वारा दिए जाने वाले इंजिन का स्थान लेना था। यह इसलिए जरूरी था क्योंकि रूस ने अमेरिका का दवाब में आ कर यह तकनीक भारत को देने से इंकार कर दिया था। वे इस परियोजन के निदेशक थे।
यह 1994 की बात है जब केरल की राजधानी पुलिस ने शहर में मालदीव मूल की दो महिलाओं – रशीदा और फौजिया को गरिफ्तार किया था। उन पर वीसा अवधि बाद देश में रहने का आरोप था। उस समय शहर की पुलिस ने यह दावा किया की उन दोनों ने पूछताछ में बताया कि वे जासूसी के लिए यहाँ आयी थी। उनका काम इसरो के वैज्ञानिको से विकास इंजिन की तकनीक के दस्तावेज़ लेकर पाकिस्तान को सौंपने थे। इस मामले की जाँच कर रहे दल के मुखिया सिबली मैथ्यू ने दावा किया था की उन दोनों महिलायों ने इस सम्बन्ध में इसरो के दो वैज्ञानिकों नम्बी नारायणन और शशिकुमारन का नाम लिया था। पुलिस दल ने मामले को सुलझाने के नाम कर इन दोनों को आनन् फानन में गरिफ्तार कर लिया था। उस समय राज्य में कांग्रेस की सरकार थी तथा करुणाकरण मुख्यमंत्री थे। इन दोनों वैज्ञानिकों की गरिफ्तारी के बाद जब बहुत हल्ला मचा तो मामला सीबीआई को सौंप दिया गया। इसने अपनी जाँच में इन दोनों वैज्ञानिको को निर्दोष बताया तथा कहा कि इनको आकरण गरिफ्तार किया गया था। मामला सर्वोच्च न्यायालय तक गया जिसने इसरो को इन दोनों को फिर से नौकरी में लेने का निदेश दिया। इसरो ने इन दोनों को नौकरी में ले तो लिया लेकिन विकास इंजिन परियोजना में नहीं रख कर अति महत्वहीन पद पर लगा दिया।
इसके बाद शशिकुमारन ने तो नहीं नारायणन ने अपना खोया हुआ सम्मान वापिस पाने की लड़ाई जारी रखी। सेवा से निवृत होने के बाद उन्होंने इस सारे मामले पर के पूरी किताब लिखी जिसमे पुलिस राज्य दवारा किस तरह से झूठे मामले में फंसाया उसका तफसील से वर्णन था। 2018 सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को 50 लाख रूपये मुआवज़े के रूप में नारायणन को दिये जाने का निदेश दिया। बाद में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने यह राशि बढाकर एक करोड़ रूपये कर दी। उस समय राज्य में वाम मोर्चे के सरकार ने इससे से आगे बढ़ कर उनको एक करोड़ 30 लाख रूपये देने का निर्णय किया। मोर्चे के नेताओं का कहना था राज्य में कांग्रेस सरकार के काल में उनके साथ हुए अन्याय के चलते अधिक से अधिक भरपाई के उद्देश्य से ही यह राशि बढाई गई है।
लेकिन इसके बाद भी नारायणन ने अपना खोया हुआ सम्मान वापिस पाने की लड़ाई जारी रखी हालाँकि इस बीच उन्हें पदम् विभूषण से भी नवाज़ा गया। उन्हें इस बात का दुःख था उनको इस तरह के झूठे मामले में फंसाने वाले पुलिस अधिकारियो के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुई। बल्कि 2012 में राज्य की कांग्रेस सरकार में उन्हें राज्य का मुख्य सूचना आयुक्त बना दिया।
नारायणन की याचिका पर सर्वोच्च नायालय द्वारा गठित तीन सदस्यों वाली समिति ने जब अपनी रिपोर्ट न्यायालय को सौंपी तो मामला आगे बढ़ा। रिपोर्ट के आधार पर न्यायालय ने सीबीआई को उन सभी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही करने को निदेश दिया। इसके लिए उसको दो महीने का समय दिया गया है। अब देखना यह है कि सी बी आई उन पुलिस अधिकारियों के खिलाफ क्या कार्यवाही करती है, जो अब तकअवकाश ग्रहण कर चुके हैं। अगर कोई कार्यवाही होती है तो ऐसे पुलिस अधिकारिओं के लिए यह एक सबक होगा जो अपने आकाओं के कहने पर निर्दोष लोगों को झूठे मामलों में फंसाने से गुरजे नहीं करते। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)