सर्वोदय केन्द्र, मंदिर मार्ग, गोपेश्वर (उत्तराखण्ड)
यह लेख घटना के बाद लिखा गया था जो त्रासदी की वास्तविकता से रूबरू कराता है
केदारनाथ में मंदाकिनी की एक छोटी धारा की तरह यहां भी श्रृषिगंगा नदी की इस पूरी त्रासदी की वाहक बनी।
श्रृषिगंगा नदी भी मंदाकिनी नदी की तरह ही हिमाच्छादित पर्वत और उनसे निकले ग्लेशियरों से रिसे पानी को संग्रह करते हुए नदी का स्वरूप पाती है। श्रृषिगंगा के जलग्रहण में मंदाकिनी नदी से ज्यादा ग्लेशियर और हिमशिखर हैं मोटे रूप से देखे तो इसमें देश की सबसे ऊंची चोटियों में सुमार नन्दादेवी से लेकर मृगथूनी, कालका,द्रौणागिरी,त्रिसूल और देवस्थानम जैसी लगभग एक दर्जन से ज्यादा नामी बर्फिली चोटियों है और उससे निकली लगभग इतनी ही बड़ी-बड़ी हिमानियों हैं जिनके जल के प्रवाह से श्रृषिगंगा का प्रवाह बनता है। आमतौर पर इस नदी में भी अन्य बर्फिली नदियों की तरह सर्दियों में पानी का प्रवाह काफी कम रहता हैत्र आसानी से आर पार भी कर लिया जाता है।
कुछ पल के लिए हुई श्रृषिगंगा की इस उग्रता की ठीक ठीक जानकारी आने वाले दिनों में ही साफ हो पायेगी। लेकिन एक बात स्पष्ठ है श्रृषिगंगा के उपरी जलागम क्षेत्र में मौजूद हिमशिखर और ग्लेशियरों में कुछ न कुछ हलचल हुई है जिसने नदी को इस रूप में आने पर मजबूर किया। जिनसे इन सवालों के उत्तर भी मिलेंगे कि यह किस रूप में हुई? कैसे हुई? जिससे भविष्य में इस तरह की घटनाओं को आपदा को आपदा बनने से रोकने में मदद मिलेगी। यह इस बारे में ज्यादा विज्ञानसम्मत जानकारी के बाद ही हो पायेगा।
स्थानीय प्रशासन और राज्य सरकार भी इस घटना के लिए ग्लेशियरों का टूटने को बड़ा कारण बता रही है। लेकिन केवल ग्लेशियर ही टूटे ? या ग्लेशियरों में मौजूद स्नो लेक का भी इसमें योगदान है? और क्या इनके टूटने से कोई लेक बनी? जिसके टूटने से नदी में यह तूफान आया। प्रसिद्व भूगर्भ विद्व और इस क्षेत्र नन्दा देवी और उपरी हिमालय में ग्लेशियरों की हलचल पर शोध कर रहे विज्ञानी डा. नवीन जुयाल का का कहना है कि यह आपदा श्रृषिगंगा के जलग्रहण क्षेत्र में त्रिसूली पर्वत से निकल रहे नाले से शुरू हुई है। डा. नवीन जुयाल इसके घटना के लिए श्रृषिगंगा घाटी में रैणी से दो किलोमीटर आगे मिल रहे त्रिसूली नाले के उपरी इलाके के ग्लेशियरों में हुई हलचलों को कारण मानते हैं।
एक हप्ते पहले ही इस क्षेत्र के अध्ययन से लौटे डा. जुयाल का कहना है कि पिछले पांच फरवरी से इस इलाके के उपरी क्षेत्र में जो ताजी बर्फ गिरी थी जिसकी मात्रा बहुत ही कम थी पिघलनी शुरू हुई। इससे त्रिसूली नाले की बनावट और कमजोर मिट्टी इस बर्फ के पानी के साथ फिसली होगी जिससे कई स् थानों पर छोटी-छोटी झील बनी होगी जो श्रृषिगंगा तक पहुंचते पहुंचते उग्र रूप धारण कर चुकी होगी और फिर निचले इलाके में बनी परियोजनायें भी इस प्रवाह के अवरोधक बने। जिसने इसकी मारक क्षमता को बढ़ाने का कार्य किया। कई स् थानों पर अवरोध के कारण इनका प्रवाह में साद और मलबे की मात्रा बढ़ने से इस छोटी नदी ने बाढ़ का रूप ले लिया।
इस आपदा को समझने से पहले यहां के भूगोल से वाकिफ होना भी जरूरी है। जहां से यह आपदा शुरू हुई वह घाटी देश के सुन्दरतम राष्ट्रीय उद्यानों में एक नन्दादेवी नेशनल पार्क का हिस्सा है यही से यह छोटी सी नदी श्रृषिगंगा उद्गमित होती है। नन्दादेवी उद्यान अपनी जैव विविधता के साथ अपने भूगोल और भौगोलिक विशिष्टता के लिए दुनियाभर में प्रसिद्व है। 628 वर्ग किलोमीटर के श्रृषिगंगा नदी के जलागम में फेले इस पार्क की सबसे बड़ी खासियत यह है कि श्रृषिगंगा का मुहाना जो रैणी और पेंग गांव के पास है वह समुद्रतल से लगभग पांच हजार फुट से शुरू होकर नन्दादेवी पीक जो 28 हजार फुट की उचाई तक फेला हुआ है। इस नदी का प्रवाह भी इसी तरह से है जो लगभग बीस से तीस किलोमीटर के अपने यात्रा पथ में 28 हजार फुट से लेकर सीधे पांच हजार फुट तक चली आती है। नदी के इस यात्रा पथ में छोटी सी भी नकारात्मक हलचल इसे विनाशकारी बनाने का काम कर सकती है।
इस जलागम क्षेत्र में पहले भी भूस्खलन और बाढ़ का इतिहास रहा है। 1970 की अलकनन्दा की बाढ़ के दौरान भी जिन खास छोटी नदियों ने तबाही मचाई थी उसमें श्रृषिगंगा भी एक थी। 1970 के बाढ़ से आये सिल्ट के उपर ही यहां पर दो दशक पहले श्रृषिगंगा पावर प्रोजेक्ट का निमार्ण हुआ था। श्रृषिगंगा में आयी बाढ़ों और भूस्खलन से यह प्रोजेक्ट पहले भी कई बार क्षतिग्रस्त हो चुका था। लेकिन रविवार को आयी बाढ़ में रेणी गांव में श्रृषि गंगा पर बने प्रोजेक्ट का नामोनिशान तो मिटाया ही अपने साथ वहां काम कर रहे चालीस से अधिक लोगों को लापता होने में योगदान दे गया।
रेणी गांव में रह रहे लोगों से बातचीत करने पर पता चला कि श्रृषि गंगा में जब यह बाढ़ आयी तो पानी और उसके साथ आ रही सिल्ट तूफान की तरह आगे बढ़ रहा था। पानी घूंए के गुबार की तरह बहता हुआ आया। रेणी के प्रधान दीपेन्द्र सिंह राणा ने बताया कि नदी का यह अकल्पनीय रूप था, पहले कभी नहीं देखा था।
श्रृषिगंगा नदी रेणी में ही बाहरी दुनिया के सम्पर्क में आती है। इससे पहले वह पेंग मुरण्डा गांवों के बीच से बहुत ही संकरी घाटी से होकर निकलती है। नन्दादेवी पार्क में भी अधिकतर इलाकों में इसी तरह संकरी घाटी से होकर निकलती है। इस इलाके में आठवे दशक से पहले खूब पर्वतारोही आते थे लेकिन श्रृषिगंगा गोर्ज के रास्ता इतना दुर्गम था कि पर्वतारोही भी घाटी में प्रवेश के दूसरे लम्बे रास्तों का प्रयोग करते थे। जो इस घाटी में घरासी बुग्याल से होकर गुजरता था। श्रृषिगंगा की संकरी घाटी की बनावट से इस नदी को वेगवान बनाया है। इस आपदा में नदी में पानी के बौल्यम से ज्यादा वेग ने अपना असर दिखाया। जहां जहा श्रृषिगंगा तीखी घाटी में थी वहां नदी के असामान्य पानी मलबे के साथ आसपास का मलबा भी इसके परिमाप को बढ़ाता रहा और मुहाने पर खड़े लोग और परिसम्पतियों के लिए काल बना। श्रृषिगंगा का बाढ़ का पानी रेणी में धौली गंगा में मिलने के बाद भी कई किलोमीटर तक उसी रफ्तार से प्रवाहित होता रहा। रेणी से लगभग पांच किलोमीटर की दूरी पर तपोवन में एन टी पी सी के पांच सौ बीस मेगावाट की निमार्णाधीन तपोवन विष्णुगाड़ जलविद्युत परियोजना के लिए नदी पर बैराज बन रहा है जिसे इस बाढ़ ने तबाह कर दिया। वहां काम कर रहे कई लोग बाढ़ की चपेट में आकर लापता है। रैणी से लेकर तपोवन के बीच कई लोग नदी किनारे घास लकड़ी बीनने और पशुओं को लेकर आये थे वे भी इस बाढ़ की चपेट में आकर लापता है।
केदारनाथ और फिर श्रृषिगंगा की इस त्रासदी के जो शुरूआती सबक है वह नदियों के चरित्र को समझने में हमारी भूलों को फिर से उजागर करते प्रतीत हो रहे हैं। नदी के जलग्रहण इलाकों में विकास योजनाओं में नदी के पारिस्थितिकीय तत्र और बाढ़ से जुड़े चरित्र को समझ कर योजनाएं बनायी जाती तो इस तरह की घटनाओं से होने वाले जानमाल के नुकसान को कम किया जा सकता है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)