लगभग डेढ़ दशक से "सड़क सुरक्षा" के क्षेत्र में कार्य करते हुए एक शब्द "आवारा पशु" ( गाय, सांड, कुत्ता इत्यादि इत्यादि) को पढ़ कर मन में हमेशा एक टीस सी महसूस होती थी.. ख़ुद पर बहुत गुस्सा भी आता था.. हमेशा एक अपराध बोध से भी ग्रसित रही की आख़िर ये पशु "आवारा" कैसे हो गए?? पर समझ में नहीं आता था कि ऐसा क्या किया जाये की ये निरीह पशु भी उनके हिस्से का सम्मान प्राप्त करें.. अपने स्तर पर छोटा सा प्रयास करती रही की अपनी कार्यशालाओं में इस बात पर जरूर ज़ोर देती थी की इन पशुओं को आवारा कहकर संबोधित ना किया जाएं।
वो कहते हैं ना की अगर मन किसी बात पर लगातार "मनन" करता रहें तो वो एक दिन जरूर "सिद्ध" हो जाती हैं.. हाल ही में एक अख़बार की छोटी से लेकिन महत्वपूर्ण ख़बर ने मेरा ध्यान आकर्षित किया और मन में एक आशा की किरण भी जागृत हुई.. जयपुर नगर निगम ग्रेटर के उप महापौर जी ने एक आदेश जारी करके निर्देश दिए हैं कि सड़क पर घूमने वाली गाय को सरकारी पत्रावली में "आवारा" कहकर संबोधित ना किया जाएँ बल्कि "बेसहारा" अथवा "आश्रयहीन" कहकर संबोधित किया जाये। यह एक अनुकरणीय पहल हैं जिसके लिए उप महापौर जी बधाई के पात्र हैं। "देर आये दुरुस्त आये"।
मैं समझ सकती हूँ की हम "गाय" को "माता" के रूप में पूजते हैं और इसलिए उप महापौर जी को गाय के लिए आवारा शब्द का प्रयोग अनुचित लगा परंतु इस शब्द का प्रयोग तो किसी भी मूक़ पशु के लिए सर्वथा अनुचित हैं। मनुष्य अपने मद में अँधा होकर यह भूल गया है कि "प्राकृतिक व्यवस्था" में वह भी एक "ज़ीव / प्राणी" ही हैं.. हाँ! उसका "बौद्धिक विकास" बाकि ज़ीवो के मुक़ाबले ज्यादा हैं.. पर क्या वाक़ई ऐसा हैं?? मुझे तो इस पर हमेशा से संशय रहा हैं...हम इन निरीह प्राणियों को आवारा क्योंकर संबोधित करते हैं?? उनके पास हमारी तरह ईंट पत्थर की छत नहीं हैं.. सिर्फ इसीलिए ना??
माँ प्रकृति ने तो बिना भेदभाव के अपने सभी बच्चों को "ममता की गोद" दी हैं और पिता आकाश ने "सुरक्षा की छत" लेकिन इस "सर्वश्रेष्ठ प्राणी" ने अपने लोभ के वशीभूत "उपहार" में प्राप्त "प्राकृतिक संसाधनों" पर "अवैध कब्ज़ा" करके बाकि मूक़ प्राणियों को "आश्रयहीन" कर दिया..
वाह रे मानव!! अब इन आश्रयहीन मूक़ प्राणियों को आवारा भी बना दिया.. इसे ही कहते हैं "एक तो चोरी ऊपर से सीनाज़ोरी"... धन्य हैं ऐसा बौद्धिक विकास!!
वैसे तो माँ प्रकृति ने वर्ष 2020 में इस सर्वश्रेष्ठ मनुष्य प्रजाति को उसके असली अस्तित्व का आईना बख़ूबी दिखाया हैं और एक मौका भी दिया हैं अपनी ग़लतियों को सुधारने का.. जिसे हमें व्यर्थ नहीं करना चाहिए।
अग़र हम अपने पूर्वजों द्वारा प्रतिपादित कुछ साधारण नियमों को पुनः अपना लें तो इन मूक़ जीवों की भी मदद हो जायेगी.. सनातन संस्कृति में घर की रसोई में बनी "पहली रोटी" गाय एवं "आख़री रोटी" कुत्ते को देने की परंपरा रही हैं.. इस परंपरा को "पुण्य" से इसीलिए जोड़ा गया था ताकि स्वार्थी मनुष्य अपने आस-पास के ज़ीव-जंतुओं के भोजन-पानी की व्यवस्था करता रहें। यह नियम "सामुदायिक सहयोग" की अवधारणा को भी प्रतिपादित करता हैं जिसमें किसी एक व्यक्ति पर भार ना डालते हुए सामूहिक सहयोग से किसी कार्य को सम्पादित किया जाता हैं।।
सड़क पर भी इन मूक़ असहाय ज़ीवो के लिए कोई विशेष स्थान निर्धारित नहीं हैं तो वो भी मनुष्यों की तरह डरते घबराते अपनी ज़ान को सांसत में डालते हुए इधर उधर भटकते रहते हैं और कभी-कभी दुर्घटना के शिकार / कारण भी बन जाते हैं.. परन्तु इसके लिये कौन जिम्मेदार हैं?? सोचियेगा जरूर..!!
उप महापौर जी की पहल सार्थक हैं परंतु सिर्फ एक विशेष पशु के लिए केवल एक राज्य विशेष में "आवारा" शब्द के उपयोग को प्रतिबंधित ना करते हुए इसे पुरे देश में सभी मूक़ पशुओं के लिए प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।
आपसे भी यह अनुरोध है कि जब भी आप सड़क पर किसी निरीह मूक़ पशु को घूमता देखे तो उसे भी वो ही सम्मान दे जो आप किसी मनुष्य को देते हैं.. आख़िर वे भी सड़क के "सम्मानित उपयोगकर्ता" हैं और हमारे "प्राकृतिक सहचर" भी तो हैं.. हैं ना??
माँ प्रकृति का ध्यान रखें.. स्वस्थ रहें..आनंदित रहें।।