इस लम्बी अंधेरी सुरंग में अब तो सुबह हो

किसान आंदोलन



लेखक : नवीन जैन

(स्वतंत्र पत्रकार, इंदौर 98935 18228)

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पचास दिन हो गए बर्फीली सर्दी,बारिश, और आँधी में बैठे बैठे पंजाब एवं हरियाणा के किसानों के आंदोलन करने वालों को। नई दिल्ली की सिंधु बॉर्डर पर इन किसानों में गबरू जवान तो हैं ही, लेकिन गौर से देखें तो स्कूली बच्चे, बुजुर्ग महिलाएं ठिठुरते स्पष्ट नज़र आ जाएंगे। ये नोनिहाल कह रहे हैं, हमें आर्म्ड फोरसेस में जाना है। मतलब, ये राष्ट्र भक्ति से ओत प्रोत हैं। सही है कि एपेक्स कोर्ट तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को उलझनों से निकलने के लिए जो चार सदस्यीय कमेटी गठित की है, उसे भी किसानों ने मानने से इनकार कर दिया है। यह अनुचित है। यह एक तरह से देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई व्यवस्था का अपमान है, लेकिन हाल फिलहाल चर्चा का मुद्दा यह नहीं है। किसानों को समझाने के लिए सरकार क्यों ऐलान कर देती, हो सकता है उक्त कानूनों में कोई पेंच रह गया हो, इसलिए अब यह जिम्मेदारी किसानों, कृषिविदों एवं कानून के जानकारों की है कि वे आपस मे मंथन करके नया प्रारूप सरकार को दे, जिस पर सरकार के लिए गहन विचार करके नए कानून बनने का रास्ता साफ हो। वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल की यह सवाल जँचता हैं कि किसानों की वजह से सरकार है अथवा सरकार के कारण किसान। 

यदि सरकार इसी नए नारे को बना रही है, तो किसानों को अन्नदाता कहना शब्दों की बाजीगरी हुई ,और संभव है वर्तमान सरकार पूर्व प्रधानमंत्री स्व. लालबहादुर शास्त्री का दिया नारा जय जवान, जय किसान को भी खासकर जवान नस्लों को, तो भूल ही जाना पडेगा। यदि पंजाब में चल रही कॉंग्रेस की सरकार केन्द्र की एनडीए सरकार की आँखों में खटक रही, है तो वहाँ भाजपा की सरकार बनाने का लोकतान्त्रिक तरीक़ा होना चाहिए। इसी को शायद देखते हुए एक विदेशी अखबार ने टिप्पणी की है कि लगता है कि जैसे भारत एक पार्टी द्वारा संचालित देश की ओर बढ़ रहा है। इसे ही मोनार्की कहा जाता हैभले एनडीए को लोकसभा के कारण पिछले चुनाव के अंतर्गत 350 सीटें मिली हों, एवं राज्यसभा में भी उसी  का बहुमत हो, लेकिन इस तथ्य से भी नज़रें कैसे चुराई जा सकती हैं कि कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों का इस देश में बड़ा वोट बैक है, और लगता नहीं कि यह वोट बैंक कोलैप्स हो जायेगा। 

एक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक, तो यहाँ तक लिख गए हैं कि किसान आंदोलन को शायद खालिस्तानियों ने अपह्त ऊर्फ़ हाईजैक कर लिया है। इन विद्वान को याद दिलाने की ज़रूरत है क्या कि खालिस्तान आंदोलन दरअसल अलग प्रदेश या कह लीजिए देश के विभाजन की साजिश था, जिसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कनाडा सहित अन्य देशों पड़ोसी देशों की हर सम्भव मदद हासिल थी। उक्त विद्वान ने ही लिखा है कि 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के दिन यदि संभावित ट्रेक्टर तमाशा हुआ, तो भारत दुनिया में लज्जित होगा। इसलिए सरकार इस तरह के प्रदर्शन को बर्दाश्त नहीं कर सकती। इस तर्क के ध्वन्यार्थ क्या निकाला जाए? सामान्य आदमी ,तो साहब यही समझेगा शायद कि उस दिन सरकार बल प्रयोग भी कर सकती है। लगे हाथ उक्त आला राजनीतिक विश्लेषक कृपया मीडिया में आई इन ख़बरों पर भी गौर फ़रमा लें किसानों ने कहा है कि यदि ऐसे हालात निर्मित होते हैं, तो दस हज़ार किसानों की जान भी जा सकती है। पंजाब के सिक्खों के बारे मे यह भी कहा जाता है कि वे मरजीवड़े होते हैं, जैसे मराठा, मर के ही हटते हैं। वैसे गहराई से देखें तो उक्त आंदोलन भी दूध का धुला भी नहीं लगता। अभी तक जो विभिन्न न्यूज चैनलों ने सिंधु बॉर्डर की तस्वीरें जारी की हैं, वहाँ का मंजर कहता है ये तो आसुदा किसान हैं। 

इनमें गरीब गुरबा कौन है? चौबीसों घण्टे कई विभिन्न पौष्टिक व्यंजन परोसे जा रहे हैं। दूध के कढ़ाव, असली घी का हलवा, बादाम, काजू जैसे सूखे मेवों के ढेर लगे हुए हैं। स्पॉट रिपोर्टिंग कर रहे एक दोस्त ने फोन पर बताया कि पत्रकारों को इतना खिलाया जा रहा है कि जैसे पेट ही फटने लगे, लेकिन इसी का दूसरा पक्ष भी तो है। पंजाब एवं हरियाणा हरित क्रांति के लिए जाने जाते हैं। कारण है पाँच नदियों पर बनीं टनल्स। पंजाब के बारे में जुमला आम है कि वहाँ की ज़मीन इतनी उपजाऊ है कि यदि मृत व्यक्ति को भी वहाँ दफना दिया जाए, तो वह भी फिर से जिंदा हो सकता है। ज्ञान देने वाली बात न समझिए, लेकिन हरित क्रांति यूँ सबसे पहले महाराष्ट्र में उक्त सूबे के तत्कालीन मुख्यमंत्री स्व. वसंतराव नाइक लाए थे। अब इसका कोई क्या कर सकता है उस वक्त तीनों प्रदेशों में कांग्रेस की सरकार थी। मूलतः पंजाब इसी क्रान्ति से ही मालामाल हुआ है। मग़र यह भी उतना ही सच है कि बिहार एवं उत्तर प्रदेश के मजदूरों का पेट पंजाब के खेतों में काम करने से जुड़ा हुआ है। 

हरियाणा की कहानी अलग है। पंजाब का ही कभी हिस्सा रहे इस राज्य के कामगार दूसरे राज्यों में बसे हुए हैं और इसके बावजूद खेती से धन अर्जित करना बुरी बात है, तो यही परिभाषा गुजरात पर लागू क्यों नहीं की जाती जो दुग्ध क्रांति की वजह से नम्बर दो का आसामी सूबा माना जाता है और कहा जाता है कि वहाँ के वासी अमेरिका कनाडा जाकर वहीं से डॉलर भेजते हैं।  किसानों की अराजकता को उचित नही मन जा सकता। बात से बात चले तो ही कोई बात बनेगी। अर्थात किसी अन्य को बीच में उतारा जाए, सरकार भी तीनों कानूनों पर शायद पुनर्विचार करे और किसान भी खेतों में लौटने को राजी खुशी मान जाएँ। कई बुद्धिजीवियों का मशवरा है कि पीएम के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल का वार्तालाप से जटिल से जटिल मुद्दा हल करने का लम्बा अनुभव काम में आ सकता है। 


कहा जा सकता है कि वे कोई किसान, तो हैं नहीं ? वे इस बेहद पेचीदा मसले की अंधेरी से अंधेरी पड़ती जा रही सुरंग में रोशनी का दिया जला नहीं पाएंगे। मज़ाक में ही ही सही कहा जा सकता है कि अब स्वर्ग से गांधीजी को तो लाया नहीं जा सकता न ! कोई भी विरोध सिर्फ विरोध के लिए नहीं किया जाना चाहिए। यह परिवपक्व होते लोकतंत्र की निशानी नहीं है। अजीत डोभाल को कांधार विमान अपहरण काण्ड नई दिल्ली के दंगों एवं भारत चीन के बीच बढ़ते तनाव को कम करने में जो सफलता मिली थी, वह उनकी समझाने बुझाने की कला में पारंगत होने का अद्भुत उदाहरण माना जाता है। पंजाब के साथ हरियाणा को कृषि सम्पन मान भी लें तो सम्पूर्णता में पूरा मंज़र डरावना भी माना जाता है। जानकारों के अनुसार भारत की कुल खेती के रकबे का सिर्फ 34 फीसद ही सिंचित है, यानी आम किसान आज भी आसमान की ओर ताकते रहने को मजबूर है। 

आंकड़ों के अनुसार प्रत्येक  किसान पर एक लाख से अधिक का कर्ज़ है। आज़ादी के पहले से कहा जाता रहा है कि किसान तो हमारा अन्नदाता है, मगर इसी भूमि पुत्र के लिए यह भी तो कहा जाता रहा है कि वह क़र्ज़ में ही पैदा होता है और कर्ज़ में ही मर जाने को मजबूर है। इसी कारण कृषकों की नई ज़मात खेती किसानी से हाथ जोड़े रखना चाहती है। सरकार की दोगली नीति का स्पष्ट सबूत है कि इसी सरकार ने अपने पूरे कार्यकाल में उधोगपतियों का 7.95 लाख करोड़ का कर्ज़ बट्टे ऊर्फ़ वेफ ऑफ कर दिया लेकिन किसानों के लिए उफ तक नहीं की। जाहिर है किसानों की आत्महत्याओं की प्रमुख वजह कर्ज़ ही है। सही है, पंजाब तथा हरियाणा के कृषक इस श्रेणी में कम ही आते हैं, लेकिन किसान नीति या कानून तो सभी के लिए एक जैसा ही बनना चाहिए। वर्ना अंधेरी सुरंग में कभी सुबह या उजाला नहीं होने वाला। (लेखक के अपने विचार एवं अध्ययन है)