आज मन बहुत उद्वेलित हो रहा हैं.. सब्र का बांध बस टूटने को तैयार ही हैं.. कितने "लापरवाह" हैं हम सब?? "मौत" को भी एक सा नहीं मानते.. हैं ना ?? अगर किसी "विषाणु" के प्रभाव से हो तो "अत्यन्त गंभीर" पर सड़क पर किसी "चालक" द्वारा "वाहन" से हो तो एक "मामूली दुर्घटना".. भले ही फिर उसमें छुट्टियाँ मनाने के लिए निकला महिला दोस्तों का समूह (करीब 17 परिवार) एक सड़क दुर्घटना में एक साथ अचानक तबाह हो जाएं.. हमें क्या? मन को यह तसल्ली दे लेंगे की अब "होनी" को कोन टाल सकता हैं? और जब तक हमारे साथ नहीं हो रही तब तक हम क्यों परेशान हो भला?? बिलकुल सत्य.. "पराई पीर" का दर्द महसूस नहीं होता हैं।
पर अब यह मामूली सड़क दुर्घटनाओं की लपटें हमारे घर के आँगन तक भी पहुँच रही हैं.. शायद इन लपटों की गर्मी अभी ठण्ड के मौसम में उतनी महसूस नहीं हो रही की इससे बचने के उपाय किये जायें इसीलिए सब बेफिक्र सो रहे हैं.. हैं ना?? वर्ना क्या कारण हैं कि जिस देश में प्रत्येक वर्ष "एक पूरा शहर" सड़क पर मौतों का ग्रास बनता हो वहाँ पर इसकी "सामूहिक चर्चा" भी ना की जाती हो?? बस शोक प्रकट करके या मुआवज़ा देकर खानापूर्ति कर दी जाती हो??
शुद्ध "हवा" एवं "पानी" के बाद "सड़क" हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। एक बार हम बिना भोजन के कई दिन निकाल सकते हैं परंतु सड़क का उपयोग हमें रोज़ाना करना ही पड़ता हैं। सामान्य परिस्तिथी में कम से कम दो बार और उससे ज्यादा भी.. मनुष्य जब इस धरती पर "जन्म" लेता हैं तब से लेकर जिस दिन वह इस धरती को "अलविदा" कहता हैं, लगातार सड़क का उपयोग करता हैं.. यहां तक की जन्म लेने के लिए अस्पताल वह सड़क से ही जाता हैं और पहली बार घर पर भी सड़क के माध्यम से ही पहुंचता हैं.. पहली बार शिक्षा ग्रहण करने के लिए विद्यालय भी सड़क के उपयोग से ही पहुंचता हैं और पहली नौकरी पर भी सड़क से ही होकर पहुंचता हैं.. और भी तमाम तरह के दैनिक कार्य हम सब रोज़ाना सड़क के उपयोग से ही करते हैं। मैं "सड़क के उपयोग" पर इतना ज़ोर इसलिए दे रही हूँ की हमे यह समझ में आये की रोज़ाना "जितनी बार" और "जितने समय" के लिए हम "सड़क का उपयोग" करते हैं "उतनी बार" और "उतने समय" तक हम सड़क पर "दुर्घटना के शिकार" हो सकते हैं। इसका दूसरा मतलब हैं कि रोज़ाना जितनी बार एवं जितना समय हम सड़क पर हैं, उतनी बार हमें "हर पल सावधान रहना" होता हैं.. पर क्या हमने कभी "सड़क की उपयोगिता" एवं "सम्बंधित ख़तरों" को इस "सुरक्षित नज़र" से देखने की "कोशिश" भी की हैं?
यक़ीनन जवाब सिर्फ "ना" में ही होगा। हमने "सड़क" को सबसे ज्यादा "उपेक्षित" किया हैं, इसीलिए इससे संबंधित "सावधानियों" एवं "ख़तरों" पर कोई सारगर्भित सामूहिक चर्चा तक नहीं होती। यह एक शाश्वत सत्य हैं जहाँ "पूर्ण ज्ञान" नहीं होता वहां "अविवेक" एवं "अन्धविश्वास" अपनी जड़ें जमा लेता हैं.. यह बात सड़क दुर्घटनाओं के मामलें में भी शत प्रतिशत सत्य हैं.. हमने इन मौतों को "भगवान की मर्ज़ी" मान लिया और सामूहिक रूप से मन को यह दिलासा दिलाया कि "होनी" तो होती ही हैं, मनुष्य का इस पर कोई जोर नहीं चलता हैं । क्या वाकई ऐसा हैं ? तब तो दूसरे देशों में भी इन मौतों का आंकड़ा लगातार बढ़ना ही चाहिए था परंतु वर्ष 2019 में "ओस्लो" शहर ( यूरोपियन देश नॉर्वे की राजधानी) एवं कई अन्य देशों के शहरों में एक भी "पदयात्री, महिला एवं बच्चों" की सड़क दुर्घटना में मृत्यु नहीं हुई, तो वहां पर कैसे मनुष्य ने होनी को अपने वश में कर लिया? कुछ तो ऐसा "सही" किया होगा जो पहले "गलत" होता रहा होगा जिससे "निर्दोष लोग" सड़क पर "काल का ग्रास" बनते होंगे?
सड़क दुर्घटना में केवल "एक व्यक्ति की मौत" नहीं होती हैं, उसके "पुरे परिवार की खुशियों की मौत" होती हैं। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से क़रीब डेढ़ लाख लोग हर वर्ष भारत में सड़क पर मौत का शिकार होते हैं यानी करीब 415 लोग रोज़ाना (500 की आबादी वाला एक छोटा गांव रोज़ हमारे देश की सड़कों पर ग़ायब जो जाता हैं) और क़रीब 5 गुना लोग उम्र भर के लिए अपंग हो जाते हैं एवं अपनी कार्य क्षमता को ख़ो देते हैं।
हम सब यह सोचते हैं कि जिसके साथ ये दुर्घटनाए होती हैं बस वो और उनके परिवारजन को ही इसका नुक़सान उठाना पड़ता हैं तो हम क्यों चिंता करें? चलिये पहले आपको एक "सच्ची घटना" से अवगत कराया जाये..
वर्ष 2011 में, मैं, एक लायंस क्लब की अध्यक्ष थी और इस नाते कई तरह के सामाजिक उत्थान के कार्य क्लब के माध्यम से करवाये थे। ऐसे ही एक कार्यक्रम में मुझे "गीता" (बदला हुआ नाम) मिलीं। कौन थी यह गीता? अक्टूबर 2011 के सेवा सप्ताह कार्यक्रम में हम सब क्लब के सदस्य "एड्स" पीड़ित बच्चों के लिए संचालित विशेष घर में उन्हें कुछ जरुरत का सामान बाँटने गए थे.. सारा कार्यक्रम घर की "केअर टेकर' की देख रेख में बहुत ही शानदार तरीके से संपन्न हुआ। उस संचालिका की कार्यकुशलता एवं जीवंतता ने मेरा ध्यान आकर्षित किया परन्तु मन में एक सवाल भी उत्पन्न हुआ की यह यहां पर क्यों और कैसे पहुँच गयी होगी? उम्र भी उसकी कोई 24 - 25 साल रही होगी, अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए मैंने उससे पूछ ही लिया (हालाँकि मैं हमेशा व्यक्तिगत जीवन और उससे जुड़े हुए अधिकारों की रक्षा की पक्षधर रहीं हूँ और किसी के निजी जीवन में अनावश्यक ताका झांकी की घोर विरोधी भी हूँ) पर पता नहीं क्यों गीता ने मेरे दिल को छू लिया था और मैं उसके बारे में सब कुछ जानना चाहती थी की वो इस जगह पर इस घातक बीमारी के साथ कैसे पहुँच गयीं? गीता ने भी मुझे निराश नहीं किया, बल्कि शायद उससे कभी किसी ने इन क़दर हमदर्दी नहीं दिखायी थी, तो उसने अपने जीवन के अनछुए पहलुओं को मेरे सामने खोल कर रख दिया। लेकिन उसके जवाब ने मेरे पैरों के नीचे से धरती हिला दी थी और सड़क दुर्घटनाओं के मेरे पूर्व के "नज़रिए" और "ज्ञान" को पूरी तरह झकझोर दिया था। तो क्या हुआ था गीता के साथ?
गीता की कहानी कुछ इस तरह शुरू होती हैं कि वो अपने माँ बाप, जो की उड़ीसा के किसी गांव में खेतिहर मज़दूर थे, अपनी शादीशुदा बड़ी बहिन एवं जीजा के साथ रहती थी, ज़ीवन यापन तो थोड़ा मुश्किल था पर खुशियाँ और सुरक्षा भरपूर थी, वो पढ़ाई में भी होशियार थी और जीवन में कुछ अच्छा करना चाहती थी। लेकिन एक दिन उसकी ज़िन्दगी अचानक बदल गयी या यूँ कहूँ की तबाह हो गयी.. गीता जब तेरह वर्ष की रही होगी, तो एक दिन सड़क पर एक "बस दुर्घटना" में उसके माता-पिता की मौत हो गयी...गीता अचानक अनाथ हो गयी... बहिन और जीजा ने गांव भी छोड़ दिया और तीनों काम की तलाश में मुंबई आ गए।
ज़िन्दगी कितनी दुष्कर हो सकती हैं इसका मतलब गीता को बहुत कम उम्र में ही पता चल गया जब उसके जीजा ने उसे देह व्यापारी को बेच दिया.. जहाँ से गीता कभी रतलाम तो कभी इंदौर तो कभी जयपुर बिकती रही। जयपुर में एक पुलिस रेड में वो पकड़ में आ गयी और महिला सदन में भेज दी गयी, क्योंकि देह व्यापार में लिप्त लोग एड्स के प्राकृतिक संवाहक हो सकते हैं, तो उनकी विशेष जांच की जाती हैं, गीता की भी जांच में पता चला की वह एक "एचआईवी पीड़ित" हैं, उसे सामान्य महिला सदन में नहीं रखा जा सकता था इसलिए उसे दो वर्ष पूर्व यहां भेज दिया गया था जहाँ वह खुद के साथ अन्य पीड़ित बच्चों की भी देखभाल कर रही थीं।
सिर्फ यह एक सत्य घटना ही काफ़ी हैं हमें झकझोरने के लिए की "सड़क दुर्घटनाएं" हमारे जीवन को किस तरह प्रभावित करती हैं फिर चाहे वो किसी के भी साथ हों.. क्योंकि गीता की कहानी से पता चलता हैं कि "जान - माल" एवं "आर्थिक नुक़सान" के अतिरिक्त बहुत सारी अन्य ज्वलंत सामाजिक बुराइयों जैसे की लड़कियों की खरीद फरोख्त, जबरन देह व्यापार में धकेलना, बाल श्रम, एड्स जैसी जानलेवा बीमारी का प्रसार, सामाजिक सुरक्षा पेंशन (विकलांग, विधवा, वृद्धावस्था) की व्यवस्था करना, विशेष गृह का संचालन इत्यादि इत्यादि, सबके मूल में सड़क पर हुई मौत एक बड़ा कारण हैं.. रोज़ाना 415 से ज्यादा लोग सड़क पर यूँ ही बेवजह मृत्यु का शिकार बन जाते हैं, तो कितने बच्चें अनाथ हो जाते हैं और कितने गीता की तरह ज़बरन गलत काम करने की लिए मज़बूर किये जाते हैं इसका कोई आंकड़ा किसी के पास नहीं हैं.. होगा भी कैसे?
हम सब इन दुर्घटनाओं को ईश्वर की मर्ज़ी समझ के आसानी से भुला जो देते हैं.. कभी कोशिश भी नहीं करते की इसके आगे उन ज़ीवित परिवारजन का क्या हुआ होगा? यहाँ मैं एक और सच्चाई रखना चाहती हूँ की ऐसा बिल्कुल नहीं है कि सिर्फ ग़रीब वर्ग के बच्चों और परिवारों को ही इसके दुष्परिणाम सहने पड़ते हैं। मैंने इस बात को समझने के लिए एक अध्ययन किया जिसमें कुछ ऐसे परिवारों (सभी आर्थिक वर्गों) को चुना जिनके घर में ऐसे हादसें हो चुके थे और उन लोगों को ख़ो चुके थे जो कमाई का एक मात्र ज़रिया थे। अध्ययन के परिणामों से साफ़ था कि इन दुर्घटनाओं के बाद सभी परिवारों की आर्थिक स्तिथि अचानक से बदल गयी जिसमें बच्चों की पढ़ाई छूटने से लेकर अन्य सभी तरह की परेशानियों का सामना करना जैसे उनकी ज़िन्दगी ही बन गयीं हो।
सबसे बड़ी चुनौती यह हैं कि इन दुर्घटनाओं का सही तरह से अन्वेषण भी नहीं होता जिससे इन दुर्घटनाओं की असल वजह तक पहुंचा जा सकें। "आमजन" इस ओर आँखें मूंदे आराम से "सो" रहा हैं और इसे नियति मान कर सहन कर रहा हैं। क्या हमें अपनी सुरक्षा के लिए आवाज़ नहीं उठानी चाहिए? सड़क पर होने वाली मौतें सिर्फ दुर्घटना नहीं हैं परंतु एक "हत्या"...."सामूहिक हत्या" हैं जिसके जिम्मेदार "हम सब" हैं!! आप सोच रहे होंगे की हम सब कैसे जिम्मेदार हैं इन सब मौतों के लिए? तो थोड़ा इंतज़ार.. जवाब मिलेंगे अगले अंक में.. तब तक स्वयं थोड़ा मंथन मनन करें और जानने का प्रयास करें की हम सब इसे कैसे ठीक कर सकते हैं ??
तब तक "सुरक्षित रहें", विशेष कर "सड़क" पर
(लेखिका का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)
लेखिका : प्रेरणा अरोड़ा सिंह की क़लम से