(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, राजनीतिक विश्लेषक)
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दक्षिण में केरल एक ऐसा राज्य है जहाँ कांग्रेस विधानसभा का चुनाव जीत सकती है। इस राज्य में बारी बारी से कांग्रेस के नेतृत्व वाला संयुक्त लोकतान्त्रिक मोर्चा और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की अगुआई वाला वाम मोर्चा सत्ता में आते रहे है। दोनों में पिछले कई दशकों से कांटे के लडाई होती आ रही है। दोनों मोर्चों की सीटों का अंतर बहुत कम रहता रहा है। पिछले विधानसभा चुनावों में वाममोर्चे की सरकार बनी थी। इसलिए आम धारणा बनी हुयी है कि तीन चार महीनों के बाद यहाँ होने वाले चुनावों में कांग्रेस की ही जीत होगी।
लेकिन वाम मोर्चे के नेताओं ने अभी से जिस प्रकार चुनाव की तैयारियां शुरू कर दी उसे देखते लगता है मोर्चा इस बार जीत के पुराने क्रम को तोड़ने के लिए कटिबद्ध है।
कांग्रेस ने इस बार अपने एक बड़े तथा अनुभवी नेता, राजस्थान के तीसरी बार बने मुख्यमत्री बने अशोक गहलोत को चुनावी कमान सौंपी है। उन्होंने जीतने की रणनीति बनाने में कोई देर नहीं लगाई। कभी समय था दक्षिण के सभी राज्यों में कांग्रेस का परचम लहराता था। अब केवल पुडिचेरी जैसे छोटे से केंद्र शासित प्रदेश के अलावा यह किसी भी प्रदेश में इसकी सरकार नहीं है। तमिलनाडु के साथ पार्टी का द्रमुक के साथ पुराना गठबंधन है। लेकिन इसका लाभ हमेशा द्रमुक को ही मिला। लोकसभा तथा विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की सीटें कम होती गयी और द्रमुक की ताकत लगातार बढ़ती चली गयी। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में तो पार्टी के स्थिति और भी दयनीय है।
2013 में कर्नाटक में कांग्रेस के सरकार बनी थी लेकिन 2018 के चुनावों में पार्टी सत्ता में नहीं आ सकी। चुनावों के बाद वहां कुछ दिन के लिए बीजेपी की सरकार बनी। इसके बाद कांग्रेस और जनता दल(स) की सझा सरकार बनी। हालाँकि कांग्रेस के पास जनता दल (स) के मुकाबले लगभग दोगुनी सीटें थी लेकिन फिर भी उसने जनता दल (स) के कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री का पद दिए जाने को मान लिया। कांग्रेस पार्टी हर हालात में बीजेपी को सत्ता से दूर रखना चाहते थी। लेकिन यह साझा सरकार लगभग एक साल ही चली। इसको गिराने का काम कांग्रेस के लगभग एक दर्ज़न विधायकों ने ही किया जो बीजेपी के खेमे चले गए तथा राज्य चौथी बीजेपी की सरकार बनी।
अब दक्षिण में केरल ही एक ऐसा राज्य बचा है जहाँ कांग्रेस अपनी ताकत दिखा कर सत्ता में आ सकती है। लेकिन इसके लिए पार्टी को हुत कुछ करना पड़ेगा। अपनी सोच और पहुँच में बदलाव करना पड़ेगा। पार्टी में चली आ रही गुटबंदी के साथ कडाई के साथ निपटना पड़ेगा। पिछले कुछ चुनावों से राजनीतिक दलों में यह परम्परा चली आ रही है कि वे चुनावों से पूर्व पार्टी का प्रधानमंत्री और राज्यों में मुख्यमंत्री का चेहरा सामने रख कर चुनाव लड़ती है। इसका कई बार लाभ भी मिलता है। लेकिन कांग्रेस मोटे तौर ऐसा नहीं करती भले ही उसे इसका खमियाजा भुगतान पड़े।
असल बात यह है कि पार्टी के भीतर गुटबंदी के चलते चुनावी चेहरे की घोषणा नहीं की जाती। पार्टी को भय रहता है अगर ऐसा किया गया तो पार्टी के संभावित उम्मीदवार के खिलाफ पार्टी के भीतर ही मुहीम चल सकती है। इसलिए अशोक गहलोत ने जब केरल के कांग्रेस नेताओं की बैठक की तो सबसे पहला फैसला यह हुआ कि पार्टी किसी को मुख्यमंत्री का चेहरा सामने रख कर चुनाव नहीं लडेगी। अगर पार्टी सत्ता में आती है तो मुख्यमंत्री पद के दो बड़े उमीदवार ओमान चंडी और ए.के. एंथोनी इस पद के सबसे बड़े दावेदार होंगे। चंडी कांगेस के नेतृत्व वाली पिछली सरकार के मुख्यमंत्री थे। उधर एंथोनी कई बार केंद्र में मंत्री रहे है। वे सोनिया गांधी और उनके आसपास के पार्टी नेताओं के बहुत निकट है। वे गांधी परिवार के विश्वास के व्यक्ति माने जाते है। इसके अलावा उनकी छवि एक ईमानदार और सादगी से रहने वाले नेता की है।
कई मायनों में केरल के चुनाव पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी के बहुत महतवपूर्ण है। जैसाकि लग रहा है वे निकट भविष्य में फिर पार्टी के अध्यक्ष बनने वाले है। इस प्रकार केरल के चुनाव उनके लिए बड़े एक बड़ी चुनौती है। यहाँ पार्टी की जीत सुनिश्चित करने का एक कारण यह भी है वे इस समय केरल के वायनाड से ही लोकसभा कस चुनाव जीते है।
अशोक गहलोत को केरल जिम्मेदारी देने के पीछे एक बड़ा कारण उन पर सोनिया गाँधी और राहुल गांधी का पूरा भरोस हैं। राजनीतिक क्षेत्रो में अशोक गहलोत को “राजनीति का जादूगर" कहा जाता है। उनके नेतृत्व में में पार्टी राजस्थान में तीन बार सत्ता में आई. इस बार राज्य के मुख्यमत्री बनने से पूर्व वे कांग्रेस के सबसे अधिक महत्वपूर्ण समझे जाने वाले पद संगठन मत्री के पद पर थे। इस पद पर कोई बहुत सकुशल पार्टी नेता ही नियुक्त। फिर अशोक गहलोत न केवल सक्षम हैं बल्कि पार्टी नेतृत्व के विश्वास के व्यक्ति भी है। अब देखना यह है कि केरल में उनका जादू कितना चलता है।