शौर्य दिवस भीमा कोरेगांव एक जनवरी पर किया संगोष्ठी का आयोजन


http//daylife.page

ग्वालियर। एक जनवरी को नव वर्ष के अवसर पर गोपाल किरण समाजसेवी संस्था एवं अन्य ने मिलकर एक कार्यक्रम का आयोजन शौर्य दिवस पर ग्वालियर थाटीपुर स्थित कबीर पार्क के सामने डा.अम्बेडकर मंगल भवन में एक दिवसीय विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया है।

इस कार्यक्रम की मुख्य अतिथी डॉ. अंजनी जलज प्रोफेसर सर्जरी गजराजा चिकित्सा महाविद्यालय ग्वालियर, मुख्य वक्ता डॉ.प्रवीण गौतम,एसोसिएट प्रोफेसर, गजराजा चिकित्सा महाविद्यालय ग्वालियर, विशिष्ठ अतिथी, डॉ.राजकुमारी नेताजी सुभाष चंद्र बोस चिकित्सा महाविद्यालय जबलपुर, सहायक प्राध्यापक डॉ.कुसुम चौधरी, म.ल.बा. महाविद्यालय ग्वालियर, धम्ममित्रा समाजसेवी, तथा अध्यक्षता पी.एस. बंमरोलिया से.नि.डिप्टी कमिश्नर परिवहन ने किया। 

इस अवसर पर भीमा कोरेगांव के उपलक्ष्य में शौर्य दिवस पर देश के विद्वान विचारक अपने सारगर्भित विचार व्यक्त किये ओर और वीर शहीदों को अपनी श्रृद्धांजलि अर्पित  की।  यह जानकारी  गोपाल किरन समाज सेवी संस्था के प्रमुख श्रीप्रकाश सिंह निमराजे  ने दी प्रारंभ मैं अतिथियो ने डॉ. अम्बेडकर व भगवान बुद्ध की चित्रों पर माल्यापर्ण किया गया. तत्पश्चात अतिथियो का स्वागत श्रीप्रकाश सिंह निमराजे अन्य ने किया ओर श्री निमराजे ने कार्यक्रम की भूमिका को रखा। 

जिले के अतिथि, समाजसेवी, प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों और शिक्षाविदों  ने अपने विचार रखते हुए कहा कि भीमा कारेगांव का युद्ध भारतीय समाज को लोकतांत्रिक बनाने की लड़ाई का गौरवशाली अध्याय है। अंग्रेजों की जीत नहीं, जातिवाद की हार का जश्न है भीमा कोरेगांव।

यह दो सौ साल (1 जनवरी 1818) पहले की दास्तान है। ब्रिटिश इतिहासकार इसे पूरब में हुई सबसे निर्णायक लड़ाइयों में एक मानते हैं। अंग्रेजों के लिए इसका महत्व इसलिए है क्योंकि इस युद्ध में उनकी जीत और पेशवा की हार के साथ ही भारत में उनके लिए कोई बड़ी चुनौती नहीं बची थी। भारत में इतिहास की टेक्स्ट बुक आम तौर पर इस बारे में विस्तार में नहीं जातीं कि भीमा कोरेगांव में क्या हुआ था। इसलिए भारत के युवाओं में इस युद्ध को लेकर प्रामाणिक जानकारियों का अभाव है। 

पुणे के पास भीमा नदी के तट पर उस दिन जो हुआ था,उसका सिर्फ राजनीतिक और रणनीतिक महत्व नहीं है. उस दिन उस मैदान में सिर्फ अंग्रेज और पेशवा नहीं लड़ रहे थे. वहां जातिवाद के खिलाफ भी एक महासंग्राम हुआ था। इस लड़ाई में अछूत मानी जाने वाले महार ​जाति के सैनिकों ने जातिवादी पेशवाई को हमेशा के लिए नेस्तनाबूद कर दिया। भारतीय समाज को लोकतांत्रिक और मानवीय बनाने में इस युद्ध ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

ये जरूर है कि आजादी के बाद भारतीय इतिहास का जो केंद्रीय नैरेटिव या आख्यान बनाया गया, उसमें आजादी की लड़ाई को उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के एकल चश्मे से देखा गया और इसमें अंग्रेज बनाम भारतीय की बायनरी बनाई गई, जबकि उस समय देश की एक विशाल आबादी अपने इंसान होने के हक के लिए जूझ रही थी।

इस नैरेटिव का असर ये था कि लगभग सत्तर साल तक भीमा कोरेगांव को मुख्यधारा में वह स्थान नहीं मिला, जिस पर उसका वाजिब हक था। अब भीमा कोरेगांव की दफना दी गई। गौरवगाथा अब बाहर निकल आई है और अब लाखों लोग इसकी बात करने लगे हैं। हालांकि टेक्स्ट बुक में भीमा कोरेगांव को वाजिब स्थान मिलना अभी बाकी है।

भीमा कोरेगांव युद्ध – कहा जाता है कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया की पांच सौ सैनिकों की एक छोटी कंपनी ने, जिसमें ज्यादातर सैनिक महार (अछूत) थे, पेशवा शासक बाजीराव द्वितीय की 28,000 हज़ार की सेना को महज 12 घंटे चले युद्ध में पराजित कर दिया था. कोरेगांव के मैदान में जिन महार सैनिकों ने लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की, उनके सम्मान में सन 1822 ई. में भीमा नदी के किनारे काले पत्थरों के रणस्तंभ का निर्माण किया गया, जिन पर उनके नाम खुदे हैं।

इस घटना को देश भर के दलित अपने इतिहास का एक वीरतापूर्ण प्रकरण मानते हैं और कई वर्षों से इसे सेलिब्रेट करने क्रांति स्तंभ पर पहुंचते रहे हैं. बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने भी भीमा कोरेगांव पहुंचकर शहीदों को श्रद्धांजलि दी थी।

पेशवाओं की यह पराजय असाधारण पराजय थी और महारों की इस विजय को सिर्फ़ सामरिक कुशलता या रणनीति के द्वारा नहीं बल्कि मनोविज्ञान के द्वारा समझा जाना चाहिए. पेशवा पहले मराठा राजाओं के ब्राह्मण मंत्री हुआ करते थे, जिन्होंने बाद में शिवाजी के वंशजों को बेदखल करके शासन पर कब्जा कर लिया था. उनके शासन काल में ‘अस्पृश्यों’ पर अमानवीय अत्याचार होते थे।

भीमा कोरेगांव विजय स्तंभ

भीमा कोरेगांव के युद्ध में हजारों वर्ष की यातना, अत्याचार और वेदना की अभिव्यक्ति अप्रत्याशित आक्रोश के रूप में हुई. महारों के लिए यह ‘करो या मरो’, अपने स्वाभिमान की रक्षा, अपनी काबिलियत को प्रदर्शित का अवसर था. इस युद्ध में अंग्रेजों और पेशवाओं के उद्देश्य अलग-अलग थे. पर महारों ने इसे सामाजिक क्रांति के अवसर के रूप में लड़ा – खोने के लिए कुछ नहीं, लेकिन पाने के लिए आत्म-सम्मान, बराबरी और प्रतिष्ठा. इस दृष्टिकोण से इसे अनोखा युद्ध समझा जाना चाहिए। पिछले चार वर्षों में दलितों/वंचितों अल्पसंख्यको  पर हमलों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। लोगों ने अधिकाधिक संख्या में संगोष्ठी में सहभागिता कर विद्वानों के विचारों से लाभान्वित हुए। 

ग्लोबल कांनक्लेव कार्यक्रम में उपस्थित नहीँ हो सकी डॉ.अंजलि जलज को सम्मानित किया साथ ही आशा गौतम को भी। वरिष्ठ नागरिको सभी को स्मृति चिन्ह दिये गये। आभार प्रदशर्न श्रीप्रकाश सिंह निमराजे ने किया। इस आयोजन में जयभीम अनुसूचित जाति जनजाति कल्याण समिति ओर उसकी अध्यक्ष सुनीता गौतम व अन्य पदाधिकारी की बहुत बड़ी भूमिका रही जिसमे डॉ.प्रवीण गौतम की भूमिका को भुलाया नही जा सकता।  (प्रेस नोट)