लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान
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ध्यान का अर्थ है- चंचलता का निरोध करना ,चचलंता को कम करना। ध्यान का प्रारंभिक अर्थ है, एक आलंबन पर मन को टिकाने का अभ्यास। जब एक आलंबन पर मन टिक गया हमने जो आलंबन लिया ,उसी पर मन टिका रहे तो हमारी एकाग्रता सध गई औरं चंचलता कम हौ गई। ध्यान का पहला प्रस्तान है- चंचलता को कम करने का अभ्यास ,एकाग्रता का अभ्यास। इन्द्रियां अपने विषय पर जाती है, वहा से हटा कर इन्द्रियांे को भीतर ले जाना, बाहर की तरफ नही। इन्द्रियां जब बार-बार बाहर की तरफ जाती हैं, दृश्य को देखती हंै या अपने विषय के साथ सम्पर्क स्थापित करती हैं तो चंचल हो जाती है। मन बाह्रय जगत के साथ सम्पर्क स्थापित नही कर सकता, इसका माध्यम इन्द्रियां ही हैं। पातंजल योगसूत्र के अनुसार जिस स्थान विशेष पर धारणा की जाती है, उस स्थान पर वृत्ति के समान रूप से निरंतर बने रहने को ध्यान कहते हैं- तत्र प्रत्यैकतानता ध्यानम्।
ध्यान के समय चित्त अन्य विषयों से हट जाता है और केवल ध्येय विषयक वृत्ति का ही आवागमन होता है। ध्यान में तेल की धारा की तरह एक ही वृत्ति का प्रवाह होता रहता है। ध्यान मन को शान्त एवं एकाग्र कर अंतर्मुखी बनाने की एक अनूठी विधा है। यह साधक के भीतर स्थित काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग-द्वेष, अहंकार आदि विकारों को क्षीण कर देता है। तब साधक दिन भर के क्रियाकलाप करते हुए भी अपने भीतर स्थित परम चेतना के साथ जुड़ा रहता है। धारणा में ज्ञानवृृत्ति की निरंतरता नहीं होती है। वह त्रुटि या खण्डित होती रहती है। यह ज्ञानवृत्ति जब एक ज्ञान, एक रूप हो जाती है तो वह ध्यान की अवस्था कहलाती है। जैसे जल जिस पात्र में रखा जाता है, वह उसी का आकार ले लेता है। उसी प्रकार ध्यान की अवस्था में मन जिस वस्तु पर टिका हुआ है, वह उसी वस्तु के आकार वाला बन जाता है। हमारे दो जगत है- एक जगत भीतर का तथा दूसरा बाहर का जगत। भीतर के जगत की सज्ञां भाव जगत। बाहर के जगत की सज्ञां है मानसिक जगत। भीतर मे मन का कोई प्रभाव नही है।
भाव विषुदि है तो समाधान है। इसलिये हम मन की सीमा को पार करे, भीतर जाऐ, भाव को विषुद्व बनाएं, स्वास्थ्य तथा प्रसन्नता का रहस्य मिल जायेगा। ध्यान का मुख्य उद्देश्य मन को नियंत्रित करना है। जो हमारे सामने होता है, वह प्रत्यक्ष होता है। जो पीछे रहकर कार्य करता है, वह परोक्ष होता है। भाव और चित्र -ये दोनो हमारे लिये परोक्ष है। मन हमारे लिये प्रत्यक्ष है इसलिये मन पर ज्यादा चिन्तन किया गया। मन को बहुत लोग जानते है। ध्यान के क्षेत्र मे भी भाव ,चित्र पर कम विचार हुआ है। महर्षि पतंजलि ने मन को महत्व नही दिया। उनका योगसूत्र शुरू होता है चित्त की वृत्तियों के निरोध से। चित्त हमारे भीतर की कल्पना है, जो मन के ज्ञानात़्मक पक्ष का संचालन करता है। मन के दो पक्ष है- ज्ञानात्मक तथा भावात्मक। जो उसका ज्ञानात्मक पक्ष है, उसका संचालन चित्त के द्वारा होता है। जो उसका क्रियात्मक पक्ष है उसका सचांलन भाव के द्वारा होता है। मन दो का प्रतिनिधित्व कर रहा है - चित्त का तथा भाव का। मन अचेतन है, चित्त चेतन है। शरीर अचेंतन है किन्तु चेतना से युक्त होने के कारण चेतना की सारी क्रिया करता है। वैसे ही मन भी अचेतंन है। मन, वचन तथा शरीर तीनो अचेतन हैं किन्तु चेतना से युक्त होकर चेतना की क्रिया करते है। मन पदगलो का ग्रहण करता है।
हमारे भाव सूक्ष्मतर है तथा मन भी सूक्ष्म है। वे हमारे सामने नही है। जो दिखाई देता है वह शरीर है, इसलिए जब भी कोई व्यक्ति मिलता है प्रश्न किया जाता है आपका स्वास्थ्य कैसा है? वह मानसिक या भावात्मक स्वास्थ्य की नही बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य का पूछते है। इसमे जानने योग्य बात यह हे की जो दिखाई दे रहा हे वह हमारा स्थूल शरीर है। उसके भीतर एक सूक्ष्म शरीर है तथा उसके भीतर सूक्ष्मतर शरीर है। हम स्थूल को देखते है किन्तु यदि सूक्ष्म और सूक्ष्मतम शरीर के बारे मे चिन्तन न करे तो इस शरीर को समझा नही जा सकता। स्थूल शरीर का निर्माणं होता है कर्म शरीर के द्वारा और निर्माण मे निमित्त बनती है शरीर पर्याप्ति। वह पुद्गलों को ग्रहण करती है तथा शरीर के निर्माण मे सहयोग देती है। कर्म के जितने विपाक होते हैं उन सब विपाको के प्रकोष्ठ हमारे मस्तिष्क और शरीर मे विद्यमान हैं। कर्म शरीर के जो स्पन्दन और विपाक बाहर आते है उनका संवादी अंग बन जाता है। उसके माध्यम से वह अपना कार्य करता है। कर्म शरीर के जितने विपाक है, उन सबके संवादी अंग हमारे शरीर मे विद्यमान है।
स्वास्थ्य के लिये एक ओर है औषधोपचार, दूसरी ओर है योगोपचार - योग का उपचार या ध्यान का उपचार। ध्यान के द्वारा आध्यात्म का विेकास होता है, आध्यात्मिक शक्तियां बढ़ती है, मन पर नियंत्रण होता है। अगर इस सन्दर्भ मे यह सोचा जाये कि ध्यान के द्वारा शारीरिक स्वास्थ्य सर्वत्र उपलब्ध हो जाये तो यह सम्भव नही है। यह ध्यान का मुख्य कार्य नहीं है। इतना अवश्य है कि अगर प्राणिक असंतुलन है तो वह ध्यान के द्वारा ठीक किया जा सकता है। कोई शारीरिक रोग है तो वह इसकेे द्वारा सम्भव नहीं है। उसके लिये आसन और प्राणायाम के प्रयोग भी जरूरी हंै। कार्योत्सर्ग को छोड कर कोई भी लम्बा ध्यान प्रारम्भ मे सही नही है। हमारे कर्म विचित्र हैं, हमारी समस्याएं अनेक है तो उनको सुलझाने के उपाय भी अलग-अलग है। जो बात ध्यान से नही हो सकती, वह आसन से हो सकती है। अतः मन को नियंत्रित करने के लिए ध्यान आवश्यक है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं विचार हैं)