लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान
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भारत देश महापुरुषों का देश है। हमारे देश में अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया। उनमें से स्वामी विवेकानन्द का जीवन हमारे लिए प्रेरणा स्रोत है। स्वामी का जन्म 12 जनवरी 1863 को हुआ। वे विख्यात् और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरू थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। जीवन के प्रारम्भिक समय से ही वे बड़े ही होनहार और आध्यात्मिक रूचि वाले व्यक्ति थे। अपनी आध्यात्मिक रूचि के कारण उनका सम्पर्क रामकृष्ण परमहंस से हुआ। रामकृष्ण परमहंस से ये इतने प्रभावित हुए की उन्हीें को अपना गुरू मान लिया। रामकृष्ण परमहंस में आध्यात्मिक शक्ति थी। उन्होंने अपनी शक्ति का प्रवेश स्वामी विवेकानन्द में करा दिया और तभी से स्वामीजी एक आध्यात्मिक व्यक्ति बन गये। इनका आभामंडल इतना तेजस्वी और चरित्र इतना उदात्त था कि देखने वाला कोई भी व्यक्ति इनसे प्रभावित हो जाता है। अपने गुरू से इन्होंने यह सीखा की सारे जीव स्वयं परमात्मा का ही एक अवतार है।
इसलिए मानव जाति की सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है। रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के बाद विवेकानन्द ने भारतीय उपमहाद्वीप का भ्रमण किया और ब्रिटिश भारत में वर्तमान स्थिति का ज्ञान प्राप्त किया। बाद में विश्व धर्म संसद 1893 में भारत का प्रतिनिधित्व करने संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए प्रस्थान किया। विवेकानन्द ने संयुक्त राज्य अमेरिका इंग्लैण्ड और यूरोप में हिंदू दर्शन के सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार किया। भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के कारण ही पहुंचा। उन्होंने सैंकड़ों सार्वजनिक और निजी व्याख्यानों का आयोजन किया। भारत में विवेकानन्द को एक देशभक्त संत के रूप में माना जाता है। इनके जन्मदिन को भारत में राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। अपने संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द जो कार्य कर गये वे आने वाली अनेक शताब्दियां तथा पीढियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। वे केवल संत ही नहीं, एक महान देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव प्रेमी भी थे।
अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था कि नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान सेे, भड़भूजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से, जंगलों पहाड़ों और पर्वतों से उनके प्रभाव से स्वतंत्रता आंदोलन को शक्ति मिली। वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख पे्ररणा स्रोत थे। उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म और दर्शन की पूण्यभूमि है। यही बड़े-बड़े महात्माओं व ऋषियों का जन्म हुआ। यह संन्यास एवं त्याग की भूमि है। यहीं केवल यहीं आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिए जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्ति का द्वार खुला हुआ है। उनका कहना था उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओं। अपने मनुष्य जीवन को सफल करो और तब तक नहीं रूकों जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये। उन्होंने कहा था कि मुझे बहुत से युवा संन्यासी चाहिए जो भारत के गावों में फैलकर देशवासियों की सेवा में लग जाये। विवेकानन्द पुरोहितवाद, धार्मिक आडम्बरों कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त विरूद्ध थे। उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा के केन्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया था। विवेकानन्द के जीवन की अनेक कहानियां आज हमारे लिए प्रेरणा स्रोत है।
उनकी दृष्टि में हिन्दू धर्म के सर्वश्रेष्ठ चिंतकों के विचारों का निचोड़ पूरी दुनिया के लिए अब भी ईष्र्या का विषय है। स्वामीजी ने संकेत दिया था कि विदेशों में भौतिक समृद्धि तो है और उसकी भारत को जरूरत भी है। लेकिन हमे याचक नहीं बनना चाहिए। हमारे पास उससे ज्यादा बहुत कुछ है जो हम पश्चिम को दे सकते है। स्वामीजी का शिक्षा दर्शन भारत मे प्रचलित शिक्षा प्रणाली के विरूद्ध था। वह मैकाले की शिक्षा नीति के विरूद्ध थे। क्योंकि इस शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ बाबुओं की संख्या बढ़ाना था। वह ऐसी शिक्षा चाहते थे जिससे बालक का सर्वांगीण विकास हो। बालक की शिक्षा का उद्देश्य उसको आत्मनिर्भर बनाकर अपने पेरों पर खड़ा करना है। स्वामीजी ने प्रचलित शिक्षा को निषेधात्मक शिक्षा की संज्ञा देते हुए कहा कि आप उस व्यक्ति को शिक्षित मानते है जिसने कुछ परीक्षाएं उत्तीर्ण कर ली हो तथा कुछ भाषण दे सकता हो, पर वास्तविकता यह है कि जो शिक्षा जन साधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं करती जो चरित्र निर्माण नहीं करती, जो समाज सेवा की भावना नहीं विकसित करती तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती उस शिक्षा से क्या लाभ? स्वामीजी सैद्धांतिक शिक्षा के पक्ष में नहीं थे।
कोई व्यावहारिक शिक्षा को व्यक्ति के लिए उपयोगी मानते थे। व्यक्ति की शिक्षा ही उसे भविष्य के लिए तैयार करती है। इसलिए शिक्षा में उन तत्वों का होना आवश्यक है जो भविष्य के लिए महत्त्वपूर्ण हो। स्वामीजी शिक्षा द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक दोनों जीवन के लिए तैयार करना चाहते थे। लौकिक दृष्टि से शिक्षा के संबंध में उन्होंने कहा कि हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जिससे चरित्र का निर्माण हो, मनोबल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और व्यक्ति स्वावलम्बी बने। पारलौकिक दृष्टि से उन्होंने कहा कि शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है। उनका मानना था कि बालक और बालिकाओं दोनों को समाना शिक्षा होनी चाहिए। धार्मिक शिक्षा पुस्तकों द्वारा न देकर आचरण एवं संस्कार द्वारा देनी चाहिए। शिक्षक एवं छात्र का आदर्श संबंध हो। (लेखक का अध्ययन एवं उनके अपने विचार हैं)