जैन दर्शन का षड्जीवनिकाय


लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान


http//daylife.page


जैन दर्शन में षड्जीवनिकाय का सूक्ष्म विवेचन किया गया है। षड्जीवनिकाय  के अन्तर्गत पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक जीवों की गणना होती है। जैन दर्शन में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति को जीव माना गया है। ये सभी मिलकर पर्यावरण की रचना करते हैं तथा संतुलन बनाये रखने के लिए एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। किसी एक तत्त्व के असंतुलन से समूचा पर्यावरण प्रभावित होता है। अतः भगवान महावीर ने कहा विवेकी मनुष्य, पृथ्वी, जल आदि की हिंसा के परिणाम को जानकर न स्वयं इनकी हिंसा करें, न दूसरों से इनकी हिंसा करवाएँ और न ही हिंसा करने वालों का अनुमोदन करें। पृथ्वी, जल आदि की हिंसा करने वाला केवल इनकी ही हिंसा नहीं करता अपितु इनके आश्रित अनेक त्रस जीवों की भी हिंसा करता है। इन षड्जीवनिकायों की हिंसा नहीं करने का जैन दर्शन के निर्देश है।


पृथ्वी ही जिनका शरीर है ऐसे जीवों को पृथ्वीकायिक जीव कहा जाता है। वह अनेक जीव और पृथक् सत्वों वाली है। शस्त्र परिणति से पूर्ण वह सजीव कही गयी है। आज अनेक प्रकार के खनिज पदार्थों के लिए पृथ्वीकाय की हिंसा की जाती है। वैज्ञानिकों ने यह आशंका व्यक्त की है कि इसी प्रकार यदि पृथ्वी का दोहन होता रहा तो ये भण्डार कुछ ही समय में समाप्त हो जाएंगे। हजारों मिलियन कचरा, मल आदि जल में फेंका जा रहा है, जिससे जलकाय की तो हिंसा होती ही है किन्तु उससे वह जल भी प्रदूषित होता है। जल में रहने वाले जीव, जैसे मछली एवं अन्य प्राणी उस प्रदूषण से प्रभावित होते हैं। उन्हीं जंतुओं का प्रयोग जब मनुष्य खाने के लिए करता है तो वह विषाक्त भोजन अनेक बीमारियों का कारण बनता है। अग्निकाय का असंयम करने से ऊर्जा के स्रोत कम हो रहे हैं। इससे उद्योग, चिकित्सा आदि सभी क्रियाकलाप प्रभावित हो रहे हैं। वायु-प्रदूषण में भी अग्निकाय का असंयम ही अधिक निमित्त बन रहा है।


प्रमुख वैज्ञानिक श्री टी. एम. दास का कहना है कि यह वायुमण्डलीय प्रदूषण केवल मानव के लिए ही नहीं अपितु प्राणी मात्र के लिए हानिकारक है। इस प्रकार पृथ्वी, जल आदि की हिंसा आध्यात्मिक दृष्टि से ही नहीं, पर्यावरण की दृष्टि से भी अवांछनीय है। आचारांग सूत्र में वनस्पति और मनुष्य के जीवन में बहुत सारी समानताओं का उल्लेख कर उनकी हिंसा से विरत रहने का निर्देश दिया गया है। प्रकृति की दृष्टि में एक पौधे का जीवन भी उतना ही मूल्यवान है, जितना एक मनुष्य का है। पेड़-पौधे पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने में जितने सहायक हैं, उतने मनुष्य नहीं हैं, वे तो पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं। वृक्षों एवं वनांे के संरक्षण तथा वनस्पति के दुरुपयोग से बचने के लिए प्राचीन जैन साहित्य में अनेक निर्देश दिये गए हैं। मुनि के लिए तो हरित-वनस्पति को काटने एवं तोड़ने की बात तो दूर उसे स्पर्श करने का भी निषेध है। श्रावक के लिए भी वनस्पति के यथाशक्ति सीमित उपयोग का निर्देश है। वनों को काटना, वनों में आग लगाना आदि क्रियाओं में महापाप माना गया है, क्योंकि उसमें न केवल वनस्पति की हिंसा होती है, अपितु अन्य वन्य-जीवों की भी हिंसा होती है और पर्यावरण भी प्रदूषित होता है। वन (जंगल) वर्षा के और पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के अनुपम साधन है।


जैनाचार्यों ने कहा व्यक्ति की इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं, वे कभी पूरी नहीं होती। व्यक्ति की आवश्यकताएँ सीमित हैं पर असीम इच्छाओं की पूर्ति के लिए वह प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करता है। परिणामस्वरूप पर्यावरण असंतुलित होता है। प्रकृति में इतनी क्षमता है कि वह संसार के सभी प्राणियों का भरण-पोषण कर सकती है पर प्रकृति में इतनी क्षमता नहीं है कि वह एक भी मनुष्य की इच्छाओं को पूरा कर सके। प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तिगत जीवन में पदार्थों के भोग की सीमा कर ले तो काफी सीमा तक पर्यावरण की समस्या का समाधान किया जा सकता है। जिन जीवों में हलन-चलन एवं गमन की क्रिया होती है उन्हें त्रस जीव कहते है। जो संत्रस्त होते है, उद्विग्न होते है, संकुचित होते है, डरते है तथा त्रास आदि अवस्थाओं में जो इधर-उधर पलायन करते है यह भी त्रस जीवों का लक्षण है।


ये तीन प्रकार के है- 1.सम्मूच्र्छनज 2.गर्भज 3.औपपातिक रसज, संस्वेदज और उद्भिद् ये तीन सम्मूच्र्छनज है। सम्मूच्र्छनज का अर्थ है गर्भाधान के बिना ही यत्र-तत्र आहार ग्रहण कर शरीर का निर्माण करना। अंड़ज, पोतज और जरायुज ये गर्भज जीव है। उपपात से जन्म लेने वाले देव और नारक औपपातिक कहलाते हैं। वर्तमान जीवन के लिये, प्रषंसा, सम्मान और पूूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिये जो त्रस जीवों की हिंसा करता है, करवाता है, और करने वाले का अनुमोदन करता है वह हिंसा उसके अहित के लिये होती है। मानव अपने सुख-सुविधा के लिये त्रसकायिक जीवों की हिंसा करता है। त्रयकायिक जीव अंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयवहीन मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना वाले होते हैं। शस्त्र से छेदन-भेदन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय विकल मनुष्य को कष्टानुभूति होती है वैसे ही त्रसकायिक जीवों को भी होती है। कीट, पतंग, कुंथु, पिपीलिका, दो इन्द्रियवाले जीव, सब तीन इन्द्रियवाले जीव, सब चार इन्द्रियवाले जीव, सब पांच इन्द्रियवाले जीव, सब तिर्यक्योनिक जीव, सब नैरयिक जीव, सब मनुष्य, सब देव और सब प्राणी सुख के इच्छुक है। ये सब त्रसकायिक कहलाते है। आगमों में इनकी हिंसा का निषेध है। (लेखक के अपने विचार एवं अध्ययन है)