लेखिका : रश्मि अग्रवाल
नजीबाबाद, 9837028700
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मज़बूरी का नाम धैर्य हो सकता, अन्य लोगों की तरह आप भी यही सोचते हो। पर आप ही बताईये क्या ये सोच सही है? नहीं! बिल्कुल नहीं क्योंकि धैर्य पर चढ़ी धुंध की परत अकसर सच को ढक लेती है। धैर्य, प्रतिक्षा करने की कला है। जो सीमा धैर्य की होती, वही हमारी उम्मीदों की भी होती है।
धैर्य रखो। यह सुनना किसी को भी अच्छा नहीं लगता। पर हम सब जानते कि एक सीमा के पश्चात् बेचैन बने रहने से कुछ हासिल नहीं होता बल्कि इसके बीच में होती बेचैनी, झुँझलाहट, उम्मीदें, भरोसा और प्यार। पर हमारी बेचैनी, निराशा को बढ़ा देती तब हम वह बोल बैठते, जो नहीं बोलना चाहिए, कर बैठते जो नहीं करना चाहिए या और यही हड़बड़ाहट 10 मिनट के काम को घंटों में बदल देती है। कितनी बार कदम तब मुड़ जाते, जब मंजिल सिर्फ दो कदम ही दूर होती है। इसलिए अनुभव की कसौटी पर धैर्य को परखिये।