लोकपाल सेठी की रिपोर्ट
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इंसान अपनी यौमे पैदायश जिस तरीके से याद रखता है। ठीक उसी प्रकार जहाँ, जिस माहौल में वो पला बड़ा और उसने कितनी भी तरक्की क्यूँ ना करली हो। चाहे वह कहीं भी देश विदेश जाकर बस गया हो तब भी उस मिट्टी से लगाव होने के कारण भूल नहीं सकता। ऐसी ही अपनी यादें लेखक, वरिष्ठ पत्रकार लोकपाल सेठी ने लिख भेजी हैं, पेश है उनकी लेखनी द्वारा लिखी गई श्री गंगानगर की कहानी :
शहर में नयी पीढी के लोग, जिनकी उम्र 40 के आसपास है, यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि कभी इस शहर के बीचों बीच एक बड़ा जोहड़ (तालाब ) था जहाँ इस शहर के लोग अपनी गाय, भैसों को पानी पिलाने ले जाते थे। गांवों से शहर में बैलगाडियो से अपना अनाज बेचने के लिए आने वाले किसान अपने बैलों और ऊटों को पानी पिलाने यहीं लाते थे। यह उनके बैलों, ऊटों और बैलगाडियो की विश्राम स्थली था। तालाब एक तरफ सीढियां भी बनी हुयी थी। शहर का धोबी घाट भी यही तालाब था। इसमें पानी सारा साल रहे इसलिए इसमें शहर के बीचों बीच बहने वाली नहर से नाले के जरिये पानी लाकर भरा जाता था। धान मंडी से अगर आप सनातन धर्म मंदिर की ओर आते है तो मंदिर लगभग सामने मेहराबों वाला तथा दूर से दिखने वाला कुआँ भी था। जहाँ किसान इससे पानी पीते थे और इसीसे नहाते धोते भी थे। यहाँ आकर ऐसा लगता था कि आप किसी जिले के मख्यालय वाले शहर में नहीं बल्कि एक कस्बे में है। शहर का यह लारी (पुराने समय की बस) अड्डा भी तालाब के किनारे लगे एक बहुत बड़े और छायादार पेड़ के नीचे था।
इस पीढी के लोगों को शायद ही पता होगा कि इस लुप्त तालाब के किनारे के निकट अरोड़ वंश का मंदिर कभी गुरुद्वारा था। इसमें अधिकतर सिख धर्म को मानने वाले सहजधारी (बिना केश और पगड़ी वाले) सिख हीजाते थे। अविभाजित पंजाब में जब 1966 -67 अलग पंजाबी भाषा बहुल राज्य के लिए आन्दोलन चला तो इस गुरूद्वारे के प्रबंधकों को लगा कि शिरोमणी गुरद्वारा प्रबधक कमेटी और अकाली दल इस पर कब्ज़ा ही ना कर ले तो एक दिन इसे मंदिर में बदल दिया गया। कुछ दिन तक तो गुरुग्रन्थ साहिब इसके कोने रहा और इसका पाठ भी होता था। लेकिन धीरे-धीरे सब बदल गया। एक दिन इस तालाब का पानी ख़त्म कर दिया गया और यहाँ शहर की दूसरी धानमंडी बन गयी। एक बच्चे रूप में स्कूल से आते हुए इस तालाब का पानी पंपों के जरिये निकलते देखने के रूक जाते थे। इस प्रकार शहर के होते विकास या बदलाव में यह तालाब लुप्त हो गया। पहले इसके कोने पर छोटा सा महावीर मंदिर था जिसका विस्तार होता चला गया। फिर भी काफी साल तक इसके पिछवाड़े के खुले स्थान पर कई साल तक महावीर दल की रामलीला, जिसे शहर के बड़ी रामलीला कहा जाता था, का आयोजन यहाँ होता था।
सांकेतिक फोटो
खैर हम बात कर रहे थे इस बदलते शहर की। हमरा परिवार इस शहर में 1930 के आस पास आ गया था। मेरा जन्म भी यही हुआ आज़ादी के लगभग 4 साल पहले हुआ था। सो बचपन से इस शहर के बदलते रूप को देखा है। याद नहीं आता कि मुख्य बाज़ार, गोल बाज़ार, के अलावा किसी मोहल्ले में सड़क नाम की कोई चीज़ नहीं थी। धूल आंधियों का यह आलम यह था कि घरों में खाना सवेरा ही बना लिया जाता था। क्योंकि इसके बाद आंधियों का क्रम शुरू हो जाता था। ऐसे ही रात का खाना दिन ढलने के साथ ही बना लिया जाता था। क्योंकि इसके बाद आंधियों का दूसरा क्रम शुरू हो जाता था।
उस समय शहर में बिजली नहीं थी अथवा सीमित रही होगी। इसलिए शाम होते ही गिने चुने चौराहों पर बल्लिओं पर बंधे पेट्रोमैक्स (जिन्हें बोलचाल की भाषा में हंडे कहा जाता था) जला दिए जाते थे। जब हंडे जलाने वाला आदमी इन्हें जलाने के लिए आता था तो मौहल्ले के बच्चे इसे देखने के लिए इकट्ठे हो जाते थे। वह रस्सी के जरिये बल्ली की ऊपरी छोर से लटके हुए हंडे को खीचकर उतारता था। उसका धुएं से काला हुआ शीशा साफ करता था। फिर उस नीचे के हिस्से में बनी टंकी में मिट्टी का तेल डालता था। इसके बाद उसका फिलामेंटेल (जिसे वह मेंटल कहता था) बदलता था। फिर जलाकर और टंकी में हवा भर कर उसे रस्सी के जरिये बल्ली के उपरी छोर तक ले जाकर बांध देता था। हम सब इसे कौतुहल की तरह देखते थे। हंडे बस अगले दो तीन घंटे के लिये जलते थे और इसके बाद शहर की गलियां अँधेरे में डूब जाती थी।
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हंडो को जलाने वाले का नाम जहाँ तक याद आता है बिहार लाल था। जिसे सब केवल बिहारी बोलते थे। उसकी तह बाज़ार में फलों की रेहड़ी थी। वह ऊँचे कद का था तथा बड़ी-बड़ी मूछें होने से वह रोबदार लगता था। वही शहर में मुनादी करने वाला एक मात्र आदमी था। शहर में जब किसी का बच्चा खेलते हुए गुम हो जाता तो वह बिहारी के पास जाता। वह एक साइकिल पर निकालता उसके एक हाथ में एक पीतल एक बड़ा घंटा होता था। हर चौराहे पर रूक कर पहले घंटा बजाता और फिर खनकती आवाज़ में गुम बच्चे का नाम, उमर ,शक्ल और उसके माता पिता का नाम बताता। आखिर में इस पर जो इनाम मिलेगा इसकी रकम भी बताता था। मिलने पर बच्चे को पहचाने का ठिकाना गोल बाज़ार की डिग्गी के पास सूचना कम घोषणा केंद्र बताता। चलते चलते यह भी बता दूं कि यह सूचना केंद्र, जो कनोपी की तरह बना हुआ था, शहर में हो रही ख़बरों/घटनाओं को जानने का प्रमुख स्थान था। यह गोल्ड बाज़ार की लुप्त हो चुकी डिग्गी के कोने पर था। यहाँ एक रेडियो था जिस पर आकाशवाणी की ख़बरों को स्पीकर के जरिये ऊँची आवाज़ में सुनाया था। शाम को 9 बजे का समाचार बुलेटिन सुनने लोग यहाँ आते थे। बाद में पास में एक पान की दुकान खुली, जिसका धंधा इस केंद्र की वजह से अच्छा खासा चलता था।
बचपन का देखा और जितना याद है, शुरुआत में शहर का बाज़ार गोल बाज़ार तक ही सीमित था। स्टेशन के आगे लगी हुए लोहे की फेंस के साथ-साथ छोटी मोटी दुकाने थी। सामने की मुख्य सड़क से गोल बाज़ार तक दोनों और नीचे दुकान और ऊपर रिहाईश मकान थे। फिर जब सड़क आगे रिहायशी ब्लाक शुरू होता था डिग्गी के चारों ओर चार बड़े पार्क थे। जिनका रख-रखाव बहुत अच्छा था। सूचना केंद्र से प्रसारित होने खबरे सुनाने के लिए पार्कों में ऊँचे खंभों पर स्पीकर लगे हुए थे। शाम को यहाँ घूमने वालों की चहल पहल रहती थी। बाद में एक पार्क को जनसभा मैदान के रूप में बदल दिया गया। इसके एक कोने पर पक्का मंच बना दिया गया जहाँ जन सभाओं के अलावा देर रात तक चलने वाले कवि सम्मलेन भी होते थे। चूँकि उस समय टीवी जैसे मनोरंजन के साधन नहीं थे। इसलिए राजनीतिक सभाओं और कवि सम्मेलनों में बहुत बड़ी संख्या में लोग आते थे।
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आज़ादी के बाद, बहावलपुर, जो अब पाकिस्तान में है तथा नए बने पड़ोसी देश के अन्य भागों से बड़ी संख्या पंजाबी शरणार्थी यहाँ आये। जीविका चलाने के लिए चारों पार्को के बीच से गुजरती शहर के मुख्य सड़क के दोनों ओर लकड़ी के खोखे खड़े कर अस्थायी दुकाने बनाली। जिसमे छोटी मोटी जरूरत के सभी चीज़ें कम ला गत पर मिलती थी। यह प्रकार से शहर के विस्तार और बदलाव का पहला चरण था। इससे पहले पुरानी धान मंडी और इसके आस पास तक बाज़ार सीमित था।
अगर मेरी यादाश्त मेरा ठीक से साथ दे रही है तो 1956–57 के आसपास इस खोखा बाज़ार में एक बड़ी आग लगी थी। अग्निशामक इंजन आदि नहीं होने के कारण शाम के समय लगी इस आग में यह अस्थाई बाज़ार पूरी तरह से जल कर नष्ट हो गया था। कुछ समय बाद सरकारी स्तर यहाँ पक्की दुकाने बनाई गई। पहले से बसे दूकान वालों को आवंटित कर दी गयी। जब इन दुकानो के आगे जयपुर के गुलाबी नगर में बनी दुकानों की तर्ज़ पर बरामदा था। पर धीरे धीरे दुकानदारो ने अवैध रूप से अपनी दूकाने आगे बढ़ा ली और यह बरामदा पूरी तरह से गायब हो गया। आग की इस घटना के बाद से शहर का बाज़ार कुछ आधुनिक जरूर बना और यह दलाव शहर के दूसरा चरण था। बाद में चारो पार्को में दुकाने बना कर शहर के फेफड़े समझे जाने वाले ये चारो पार्क हमेशा के लिए गायब हो गए।
जब इस शहर का प्लान बनाया गया था तो हर ब्लाक एरिया के मध्य बाज़ार बनाया गया था। इसे दुकान सह निवास की तर्ज़ पर बनाया गया था। चंद दुकानों के बीचों बीच बहुत बड़ा मैदान जैसा खुला एरिया था। लेकिन ये मोहल्ला बाज़ार कभी भी पूरी तरह से बस ही नहीं पाया। विभाजन से यहाँ आए लोगों ने इन्हें लेकर पूरी तरह रिहायशी बनाकर एक आधुनिक शहर का सपना खत्म कर दिया। अब तो इनको भी तोड़कर बड़े-बड़े मकान बना लिए गए। ऐसे इक्का दुक्का दुकान सह आवास अभी भी कुछ मोहल्लों में बचे है। इनकी मूल पहचान शहर में रह रहे बुजुर्ग ही कर सकते हैं। कभी शहर की सीमा ब्लाक एरिया तक ही थी, पर धीरे शहर का विस्तार होता गया। अगर उस समय के शहर के बारे में विस्तार से लिखना शुरू करें तो इसके लिए आलेख को बहुत लम्बा करना पड़ेगा। इस सीमित शब्द दायरे में इसके केवल कुछ पहलुओं को छुआ गया है। अगर सब पक्षों पर लिखा जाये तो इसके लिए एक पूरी किताब लिखनी पड़ेगी। (लेख में जैसा लेखक ने अपने बचपन में देखा लिखा है, शायद गंगानगर से जुड़े लोगों एवं अध्ययन की दृष्टि से सभी को पसंद आएगा)