स्पेशल रिपोर्ट
निशांत लखनऊ से
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पर्यावरण बने चुनावी मुद्दा, मछुआरों को मिले तटीय सम्पदा की बागडोर
इसमें कोई दो राय नहीं कि कोविड की मार से भारत की अर्थव्यवस्था की कमर टूट चुकी है। और हालात बेहतर करने के लिए, देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ माने जाने वाला प्रदेश, महाराष्ट्र, महत्वपूर्ण भूमिका होगी। हालाँकि देश की सबसे बड़े औद्योगिक राज्य और भारत की वित्तीय राजधानी, महाराष्ट्र में आज चरम जलवायु प्रभावों से खुद ही जूझ रही है।
अनियोजित शहरीकरण और तेजी से बिगड़ती वायु गुणवत्ता से घिरी मुंबई महानगरी प्रकृति की इस मार के बाद बिना प्रकृति का हाथ पकड़ नहीं उठ सकती है । ऐसा मानना है तमाम विशेषज्ञों का जो आज, इंटरनेशनल क्लीन एयर डे, के मौके पर देश की अर्थ व्यवस्था को बिना पर्यावरण को और नुकसान पहुंचाए कैसे सुधार जाए, इस पर चर्चा कर रहे थे। इस चर्चा का आयोजन पर्पज़( Purpose), क्लाइमेट लैब, असर( Asar), सोशल इम्पैक्ट एडवाइजर्स और क्लाइमेट ट्रेंड्स ने इसकी मेजबानी के लिए इंडिया क्लाइमेट कोलैबोरेटिव के साथ मिलकर किया।
अपनी बात रखते हुए, प्रख्यात पर्यावरणविद, बिट्टू सहगल, ने कहा, “कोविड ने हमें एहसास दिला दिया है कि अर्थ व्यवस्था कितनी ज़रूरी है। इस कद्र की आज हम अर्थ व्यवस्था को पूज रहे हैं। लेकिन विडम्बना देखिये कि इसी अर्थ व्यवस्था की पूजा ने हमें जलवायु परिवर्तन जैसा फल दिया।” अपनी बात समझाते हुए बिट्टू कहते हैं, “हमारी प्राक्रतिक सम्पदा ही न सिर्फ़ हमारी सबसे बड़ी पूँजी है, यह सम्पदा हमारी आर्थिक संरचना और उसका पूरा ढांचा है। लेकिन अब तक हुआ इसके ठीक उलट है। हम बाँध बनाते गए और यह भूल गए की उस बाँध के पास की प्राक्रतिक सम्पदा का क्या हो रहा है।”
उनकी बात को बल देते हुए इंडिया क्लाइमेट कोलेब्रेटिव की कार्यकारी निदेशक श्लोका नाथ ने कहा, “अब वक़्त है यह सोचने का नहीं की अर्थव्यवस्था या पर्यावरण में किसे चुनें। अब वक़्त है कि कैसे पर्यावरण और अर्थ व्यवस्था को साथ ले कर चलें। जलवायु परिवर्तन हमारे दरवाज़े खड़ा है और कोविड जैसी महामारी के बाद तो उससे और भी मूंह नहीं मोड़ सकते।”
इस बात पर बिट्टू कहते हैं, “अब जलवायु परिवर्तन को चुनावी मुद्दा बनने का वक़्त आ गया है। क्यूंकि जब इससे वोट जुड़ेगा, तब ही हमारे नीति निर्माता इसे एक प्राथमिकता के तौर पर देखेंगे।”
वोट और चुनावी मुद्दे के तर्क को समझाते हुए वो आगे कहते हैं, “यह पूरा मुद्दा हमारा और आपका है। कमान हमारे हाथ में ही होनी चाहिए। जब हम इसे अपना मानेंगे तब ही नीति निर्माता इस पर ध्यान देंगे और बेहतर फैसले लेंगे। लेकिन जब हमारे फैसले कोई और लेगा तो हमारा नुकसान ही होगा। मिसाल के तौर पर महाराष्ट्र की तटीय सम्पदा ही लीजिये। इसका जितना ख्याल हमारे मछुआरे रख सकते हैं उतना कोई नहीं। वो परम्परागत रूप से न सिर्फ़ तटीय इलाकों पर निर्भर हैं, वो इनके लिए सबसे ज़्यादा संवेदनशील भी हैं। तो अगर हमें अपनी तटीय सम्पदा को बचाना है तो सरकार को उसकी बागडोर फ़ौरन मछुआरों को देनी होगी। न सिर्फ़ अर्थ व्यवस्था सुधरेगी, उनकी सम्वेदनशीलता के चलते पर्यावरण को नुकसान भी कम होगा।”
अर्थ व्यवस्था पर ध्यान केंद्रित करते हुए एस4एस टेक्नोलॉजी के संस्थापक निधि पन्त ने कहा कि एक उद्यमी के तौर पर उनका अनुभव रहा है कि चीज़ें सुधरी तो काफ़ी हैं लेकिन अब भी काफ़ी कुछ सुधारने की गुंजाइश है। वो कहती हैं, “क्लीन टेक्नोलोजी में सक्रिय उद्यमियों को बेहतर संस्थागत और आर्थिक ढांचा दिलाने की ज़रूरत है। जब ऐसे उद्यम पनपेंगे तब ही पर्यावरण अनुकूल नौकरियां और अर्थ व्यवस्था पनप पायेगी।”
इस मुद्दे पर श्लोका निधि के साथ खड़ी दिखीं। उन्होंने कहा, “परम्परागत आर्थिक नीतियां इस नए परिवेश में प्रासंगिक नहीं। अब वक़्त है पर्यावरण के चश्मे से अर्थ व्यवस्था को देखने का। भारत को ब्रिटेन की तर्ज़ पर एक ग्रीन फायनेंस टास्क फ़ोर्स के बारे में सोचना चाहिए और एक बेहतरीन और नई आर्थिक रणनीति की ज़रूरत है जो क्कोविद महामारी के बाद देश की अर्थ व्यवस्था को पर्यावरण को बिना नुकसान पहुंचाए उबार पाए।” आगे महेंद्र समूह के चीफ सस्टेनेबिलीटी अधिकारी अनिरबन घोष और हिंदुजा फाउंडेशन के चीफ पॉल अब्राहम ने ग्रीन रिकवरी के दूसरे आयामों पर चर्चा की। अंततः, सभी प्रतिभागी इस बात के लिए एक मत दिखे कि बिना प्रकृति के आगे सर झुकाए हम अर्थव्यवस्था का सर नहीं उठा सकते। (लेखक का अपना अध्ययन और अपने विचार हैं)