मानव जीवन का सच !


लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान


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किसी ने लिखा है कि- बड़े भाग्य मानुष तन पावा अर्थात् मनुष्य का शरीर बड़े पुण्य कर्म के पश्चात् ही प्राप्त होता है। मानव जीवन बड़ा ही दुर्लभ है। चैरासी लाख जीवन योनियों में यह सर्वश्रेष्ठ है। मानव एक पंचेन्द्रिय प्राणी है। चेतना का पूर्ण विकास मानव में हुआ है। एक इन्द्रिय वाले जीव, दो इन्द्रिय वाले जीव, तीन इन्द्रिय वाले जीव, चार इन्द्रिय वाले जीव इन्द्रिय विकल कहलाते है, क्योंकि संपूर्ण इन्द्रियां इन जीवों में नहीं है। पंचेन्द्रिय प्राणियों में मानव ही सर्वश्रेष्ठ है। पशुओं में भी पांच इन्द्रियां होती है किन्तु सोचने विचारने की क्षमता उनमें नहीं होती। मानव और पशु में यही अंतर है कि मानव ज्ञान संपन्न है। इसलिए मानव सर्वश्रेष्ठ है। 


मानव तन पाकर यदि मानव में मानवता का विकास न हो तो वह पशु से भी वदतर है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहकर एक दूसरे के सुख-दुःख से प्रभावित होना उसका धर्म है। यही कुछ ऐसी बाते है जो कि मानव को अन्य पंचेन्द्रिय प्राणियों से अलग करती है। मानव का सार है मनुष्यता, जो हर मनुष्य में पायी जाती है। इसे सुरक्षित रखना और सभी प्राणियों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाये रखना मानव का परम कत्र्तव्य है। मानव एक धर्मनिष्ठ प्राणी है। उसे अपने मन को शिव संकल्पों से युक्त करना चाहिए। धर्म इसी आवश्यकता का प्रतिपादन करने के लिए है। मन को सत्यम् से, वाणी को शिवम् से और चरित्र को सुन्दरम् से युक्त करने का उपक्रम है धर्म। योगत्रय के पवित्री करण में तत्वत्रय या रत्नत्रय की उपयोगिता और सार्थकता तभी सम्भव है जब जीवन से जुड़े हुए विविध व्यवहार और वस्तुओं के प्रति हम अपनी सम्यक् अवधारणा बनाये। मानवतावाद, दर्शन की एक ऐसी विचारधारा है जिसके अन्तर्गत मानव तथा उसकी समस्याओं के विवेचन को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है। 



मानवतावाद में मनुष्य को ही केन्द्रिय स्थान मिला है। यह विचारधारा मनुष्य के हितों से संबन्धित है। मानवतावाद मुख्यतः इहलोक, बुद्धिवाद और व्यक्तिवाद के साथ मानव जीवन और उसकी अनुभूतियों को महत्व देता है। इस रूप में मानवतावाद से अभिप्राय उस दर्शन से रहा हैं जिसका केन्द्र व प्रमाण दोनों मनुष्य ही है। इस प्रकार मानवतावाद का अभिप्राय मनुष्य केन्द्रित दर्शन है। यह दर्शन पूर्वजन्म, स्वर्ग-नरक या परलोक की अवधारणाओं को स्वीकार करना आवश्यक नहीं समझता है। मानवतावाद मनुष्य के कल्याण एवं सर्वतोमुखी विकास की दृष्टि से जाति, वर्ग, सम्प्रदाय को अधिक महत्व नहीं देता। मानवतावाद की मुख्य मान्यता है कि हमारे प्रयत्नों एवं लाभ हानि का प्रधान कार्य क्षेत्र इहलौकिक जीवन है न कि पारलौकिक जीवन। इस प्रकार मानवतावाद का मुख्य केन्द्र वर्तमान जीवन और उसका उच्चतम निर्माण है। मानवतावाद का उद्देष्य ईश्वर या किसी अन्य अलौकिक शक्ति के स्थान पर स्वयं मनुष्य तथा उसकी मूल समस्याओं का निष्पक्ष अध्ययन करना है। इस दार्शनिक विचारधारा के अन्तर्गत मानव की उत्पत्ति, प्राकृतिक परिवेश में उसके विकास, ब्रह्माण्ड के साथ उसके संबंध, उसके व्यक्तित्व, स्वभाव तथा आचरण का वस्तुपरक अध्ययन है। मानवतावाद में अमूर्त, निरपेक्ष, अलौकिक, शक्तियों के स्थान पर मनुष्य के मूर्त एवं वास्तविक समस्याओं का विवेचन किया जाता है। 



मनुष्यता ही विश्व में मानव को सर्वोच्च स्थान प्रदान करती है तथा मानव प्रकृति के उस पक्ष पर बल देती है जो प्रेम, मैत्री, दया सहयोग के रूप में अभिव्यक्त होती है। इसके अंतर्गत व्यक्ति की संवेदना व दया, करुणा का भाव समस्त सृष्टि के जीवधारियों के लिए होता है। अतः अहिंसा इस दर्शन की प्रतिष्ठा के लिए सबसे अनिवार्य शर्त हैं। मानव जीवन में कर्म को पूर्ण महत्व दिया गया है और यह स्वीकार किया गया है कि मानव की श्रेष्ठता का आधार, विकास का आधार जन्म लेने मात्र से नही अपितु कर्म पर आधारित है। प्रत्येक किया गया कर्म मानव के जीवन में निश्चित परिणाम देता है। भारतीय कर्म की मान्यताओं एवं मानवतावादी कर्म की मान्यता मे मूल अंतर यह है कि भारतीय कर्म सिद्धान्त में मानव के साथ कर्मो का संबंध पूर्व और पाष्चात् रूप से जुड़ा है जबकि मानवतावाद में कर्म सिर्फ वर्तमान जीवन तक आधारित है। अहिंसा एक सार्वभौमिक मूल्य है जिसे विश्व के सभी धर्म दर्शनों में मान्यता मिली है। मानव जीवन में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की मुख्य भूमिका है। सदाचार के लिए “अहिंसा परमोधर्मः” का उद्घोष किया गया है। श्रम, तप और त्याग प्रधान भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक मूल्यों की गहरी प्रतिष्ठा हैं। 



आध्यात्मिक जीवन के उत्कर्ष को निरन्तर गतिशील बनाये रखने के लिए व्रत, नियम आदि के पालन और मर्यादा से अपने आचार को संवारना आवष्यक है। व्रत ग्रहण के पहले व्यक्ति को तदनूकूल भूमिका बनाकर उनके पालन की सामथ्र्य प्राप्त करना परम आवश्यक है। क्योंकि व्रत बीज की तरह है। व्रतरूपी बीजों को फलित करने के लिए अपने हृदय रूपी भूमि को उर्वर बनाना आवष्यक है, अन्यथा व्रत फलीभूत नहीं होंगे। व्रत, जप, तप आत्मशुद्धि के लिए किये जाते है। आत्मा के साथ कर्म रज का बंधन होने के कारण प्राणी को इस संसार में दुःख प्राप्त होता है। यदि आत्मा के ऊपर लगे हुए कर्मरजों का निस्तारण हो जाये तो आत्मा अपने पूर्ण चैतन्य रूप में अवस्थित हो जाती है। वैसे तो प्रत्येक जीव की आत्मा भिन्न है किन्तु मूलरूप से आत्मा एक ही है। इसलिए समदर्शी व्यक्ति सभी प्राणियों में जीवदर्शन करता है और जो उसके अनुकूल रहता है वही व्यवहार वह सभी प्राणियों के साथ करता है। मानव जीवन का सार भी यही है। (लेखक का अपना अध्ययन और अपने विचार हैं)