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प्रत्येक सांसारिक व्यक्ति को परिवार व प्रियजनों के अतिरिक्त मित्रों की आवश्यकता पड़ती जो उसके दुःख-सुख में साथ निभाने व उचित मार्गदर्शन करके परछाई की भांति आजीवन साथ रहें पर कैसे समझें कि सच्चा मित्र कौन व कैसा? आईये समझने का प्रयत्न करें जैसे- धन रूपी मित्र-समाज से तालमेल बिठाने, परिवार का व स्वयं का जीवन चलाने के लिए, धन की आवश्यकता पड़ती और इसे जीवन का अभिन्न मित्र बनाना पड़ता क्योंकि धन-संपदा व्यक्ति की इच्छाओं आवश्यकताओं की पूर्ति कर समाज में वो प्रदान करती, जिसे पाने के लिए मनुष्य परिश्रम करता और जीवन के अंतिम साँस तक इस पर आधारित रहकर जीवन-यापन करता है। पर मृत्यु का आगाज़ होते, उसके द्वारा अर्जित की गई संपदा स्वतः छूट जाती और धन रूपी मित्र साथ छोड़ देता है।
परिवार रूपी मित्र - ‘अकेला चना भाड़ नहीं चला सकता’ उसी प्रकार व्यक्ति को परिवार, नाते-रिश्ते व प्रियजन के रूप में जीवन के सुख-दुःख बांटने, रिश्तों की परिभाषा समझने हेतु परिवार रूपी मित्र की आवश्यकता, प्रत्येक सांसारिक व्यक्ति को पड़ती, जो जीवनपर्यन्त सम्बंधों के दायरे में अपना कर्तव्य निभाते पर ये जीवन का अन्त होने पर श्मशान घाट तक के साथी होते, देह के स्वाह के पश्चात् इनकी मित्रता व्यक्ति से टूट जाती और परिजन शरीर रूपी मिट्टी को छोड़ वापस आ जाते हैं।
स्वयं के कर्म रूपी मित्र - प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कार्य करता, अच्छे व बुरे दोनों प्रकार के होते। उसके कर्म कहलाते और कर्म रूपी मित्र व्यक्ति के साथ चलते व सच्चे अर्थों में मित्र की भांति जीवनपर्यन्त साथ देते, अच्छे-बुरे फलों की प्राप्ति करवाते हैं। ये कर्म रूपी मित्र व्यक्ति का साथ कभी नहीं छोड़ते बल्कि परछाई बन साथ-साथ चलते, कदम-कदम पर सोचने के लिए विवश करते कि मित्र हो तो कर्म जैसा, जिसके वियोग का कभी दर्द न हो। सोचना-समझना, हमारा कार्य कि किसे सच्चा मित्र समझते हैं? (लेखिका के अपने विचार हैं)
लेखिका : रश्मि अग्रवाल
नजीबाबाद
9837028700