लेखक : डा. रामजीलाल जांगिड, नई दिल्ली
(लेखक प्रख्यात शिक्षाविद एवं गांधीवादी विचारों के अध्येता हैं)
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भारत के हर विद्यालय, हर कॉलेज और हर विश्वविद्यालयों में अब 1 सितम्बर 2020 से पढ़ाई शुरू होने वाली है। उसके लिए शिक्षकों की जरूरत पड़ती है। यदि विश्वविद्यालय की बात करें तो पहले प्राध्यापक, रीडर और प्रोफेसर तीन पद होते थे। कुछ साल पहले उनके नाम बदलकर सहायक प्रोफेसर, एसोशिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर कर दिए गए हैं। तीनों पदों के लिए अलग अलग योग्यताएं और अनुभव की अलग अलग अवधियां निर्धारित हैं। जैसे सहायक प्रोफेसर के लिए अध्यापन या शोध का 5 वर्ष का अनुभव। पत्रकारिता के सहायक प्रोफेसर के लिए अध्यापन या शोध के अनुभव की जगह शायद पत्रकार के रूप में न्यूनतम 5 वर्ष काम करने का अनुभव मांगा जा रहा है। एसोसिएट प्रोफेसर पद के लिए यह अवधि 10 वर्ष और प्रोफेसर पद के लिए न्यूनतम 15 वर्ष का अध्यापन, शोध या पत्रकारिता का व्यावहारिक अनुभव मांगा जाता है।
सांकेतिक फोटो
भारत के सभी राजनीतिक दलों को भी ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि मुख्यमंत्री पद के लिए विधायक के रुप में काम करने का कम से कम 15 वर्षों का अनुभव, मंत्री पद के लिए विधायक के रुप में काम करने का कम से कम 10 वर्ष का अनुभव और विधायक बनने के लिए नगर पालिका या जिला परिषद के सदस्य के नाते काम करने का कम से कम 5 वर्षों का अनुभव अनिवार्य हो। सांसद बनने के लिए भी संगठन में पदाधिकारी के रूप में या विधायक के रुप में कम से कम 10 वर्षों का अनुभव होना चाहिए। फिर केंद्र सरकार में मंत्री बनने के लिए सांसद के रूप में कम से कम 5 वर्षों का अनुभव होना चाहिए।
भारत में स्वस्थ लोकतंत्र विकसित करने के लिए यह जरूरी है कि अब राजनीति में जगह बनाने के इच्छुक युवकों और युवतियों को राजनीतिक दल अलग अलग क्षेत्रों में जिम्मेदारी देने के लिए तैयार करें। जैसे कुछ को विदेश मंत्री बनाने के लिए तैयार किया जाना चाहिए, कुछ को ऊर्जा क्षेत्र का विशेषज्ञ बनाया जा सकता है, कुछ को शिक्षा प्रणाली की बारीकियां सिखाई जा सकती हैं और कुछ भावी स्वास्थ्य मंत्री बनाने के लिए जरूरी जानकारी से लैस किए जा सकते हैं। हर राजनीतिक कार्यकर्ता को संविधान, देश के महत्वपूर्ण कानूनों और कंप्यूटर से कुशलता पूर्वक काम करने की समझ होनी चाहिए।
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उसमें समाज में परिवर्तन लाने की और वैज्ञानिक सोच की इच्छा जगानी होगी। पंक्ति तोड़कर येन केन प्रकारेण पहले स्थान पर पहुंचने की व्यग्रता पर नियंत्रण करना होगा। धन बल की राजनीति और राजनीति को काला धन अर्जित करने की सीढ़ी बनाने की प्रवृत्ति स्थाई नहीं होती। वे प्रपंच एक न एक दिन जगजाहिर हो ही जाते हैं। फिर ऐसे लोग मुंह दिखाने लायक नहीं रहते। झारखंड के मधु या हरियाणा के गोपाल कितनी ही जोड़ तोड़ कर लें। एक दिन न्यायालय या जनता की अदालत में उन्हें हिसाब देना ही पड़ता है। हर जिले में इमारत या मंदिर बना लेने से समाज के वंचित वर्गों की आगे बढ़ने के लिए समान अवसर देने की मांग करने वाली आवाजें मंदी नहीं पड़ेंगी। बीमारियां थाली या घंटी बजाने से नहीं, जांच की सुविधाएं बढ़ाने, नए अस्पताल खोलने, स्वास्थ्य कर्मियों की संख्या में तेजी से वृद्धि करने और प्रयोगशालाएं में बढ़ाने से खत्म होती हैं।
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धरती को स्वर्ग बना देने वाले वायदे थोड़ी देर काल्पनिक आनंद दे सकते हैं। मगर तपती हुई धूप में बिना छाते, चप्पलों या जूतों के और दुधमुंहे बच्चों को छाती से चिपकाए हुए चलते रहने वाले हजारों मजबूर भारतीयों के पैरों में पड़े हुए छाले सत्ता के प्रति हुई निराशा, कुंठा और उपेक्षा कभी कम नहीं होने देंगे। नतीजा क्या होगा? आने वाले वर्षों में आक्रोश, रोष और सीनों में छिपा हुआ दर्द सड़कों पर हिंसा फैलाएगा। संवेदनशील हजारों युवकों और युवतियों की तनी हुई मुट्ठियां विश्वविद्यालयों के परिसरों में हवा में लहराएंगी और नारे गूंजेगे- 'आगे बढ़ो, संघर्ष करो। हम एक हैं।' पुलिस कितने डंडे चलाएगी, कितनी बार पानी की बौछारें डालेंगी और आंसू गैस के कितने गोले छोड़ेगी ? जो अपने अधिकारों को एक बार जान लेते हैं, वे औरों को जागरूक बनाने के लिए घरों से निकल पड़ते हैं। कभी वह नर्मदा नदी पर बनने वाले बांध की ऊंचाई के कारण गांव डूब जाने का मुद्दा उठाते हैं। कभी वे उत्तराखंड के पेड़ों की नासमझ कटाई रोकने के लिए पेड़ों से चिपक जाते हैं। कभी वे अपनी जमीन, जल और जंगल बचाने के लिए नक्सली बन जाते हैं। जरूरत है उन्हें अहिंसक बनाए रखने की और उनकी बात समझने की। यहीं गांधी जी की शिक्षा याद करने की जरुरत है। (लेखक के अपने विचार हैं)