शख़्सियत : ज्ञानेन्द्र रावत लेखक, वरिष्ठ पत्रकार एवं चर्चित पर्यावरणविद हैं
वृक्षारोपण कार्यक्रम तो सरकार हर साल चलाती है, दावे भी किये जाते हैं, लेकिन उसके बाद लगाये गये पेड़ों का कोई पुरसा हाल नहीं होता। अभियान के तहत तो पेड़ लगाकर अधिकारी अपने कोटे की पूर्ति दिखाकर कर्त्तव्य की इतिश्री कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। सरकार की वाहवाही भी लूट लेते हैं लेकिन उनका ध्यान न समाज की बहबूदी की ओर होता है और न पर्यावरण की रक्षा की ओर ही रहता है। वृक्षारोपण में फलदार और छायादार पेड़ों को प्रमुखता नहीं दी जाती जो बेहद जरूरी है। हम पृथ्वी को हरा-भरा देखना चाहते हैं तो उसे हरित संपदा से पूर्ण बनाना हमारा पहला लक्ष्य होना चाहिए। आज से चार-पांच दशक पहले नीम, बरगद, पाकड़, गूलर, जामुन आदि के पेड़ सर्वत्र देखे जा सकते थे जिनके आज दर्शन ही दुर्लभ हैं। जहां तक सड़क किनारे छायादार पेड़ों का सवाल है, विकास के चलते आज वहां पेड़ों का अकाल दिखाई देता है।
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बारिश का मौसम शुरू होते ही हमने जानेमाने वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद ज्ञानेन्द्र रावत से टेलीफोनिक इंटरव्यू के ज़रिये अपने पाठकों के बहुत कुछ जानकारियां ली। हमारे प्रश्नों के उत्तर एक ज़िंदादिल, बुजुर्ग पत्रकार हँसते हुए देते रहे और हम उनसे जन सामान्य के साथ पर्यावरण को बढ़ावा देने की बात को ज़ेहन में रखते हुए चर्चा करते रहे। पेश है ज्ञानेन्द्र जी रावत द्वारा की बातचीत के अंश उनकी ही जुबानी :
हरित संपदा का सवाल आज दुनिया में सबसे अहम है। कारण आज हजारों की तादाद में जंगल हर साल विकास यज्ञ की समिधा बन रहे हैं। विडम्बना यह कि यह सब नेतृत्व की जानकारी में हो रहा है। उस हालत में दोष दें भी तो किसे। हरीतिमा की रक्षा की दृष्टि से वृक्षारोपण को छोड़कर न कभी इस ओर ऐसे प्रयास ही किये गये जिनको सराहा जा सके।
60-70 के दशक में यूकिलिप्टस के पेड़ों को प्रमुखता दी गयी। जिससे न केवल भूमि की उर्वरा शक्ति का ह्वास हुआ बल्कि भूजल पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। वृक्षारोपण कार्यक्रम तो सरकार हर साल चलाती है, दावे भी किये जाते हैं, लेकिन उसके बाद लगाये गये पेड़ों का कोई पुरसा हाल नहीं होता। अभियान के तहत तो पेड़ लगाकर अधिकारी अपने कोटे की पूर्ति दिखाकर कर्त्तव्य की इतिश्री कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। सरकार की वाहवाही भी लूट लेते हैं लेकिन उनका ध्यान न समाज की बहबूदी की ओर होता है और न पर्यावरण की रक्षा की ओर ही रहता है।
देखा जाये तो पर्यावरण रक्षा का सवाल तो सरकारों के शब्दकोष में होता ही नहीं है। फिर जितने पेड़ लगाने का लक्ष्य निर्धारित होता है, उतने लगाये भी नहीं जाते। यह जगजाहिर है। यह तो उनकी संवेदनहीनता को ही दर्शाता है। वृक्षारोपण में फलदार और छायादार पेड़ों को प्रमुखता नहीं दी जाती जो बेहद जरूरी है।
आज से चार-पांच दशक पहले नीम, बरगद, पाकड़, गूलर, जामुन आदि के पेड़ सर्वत्र देखे जा सकते थे जिनके आज दर्शन ही दुर्लभ हैं। जहां तक सड़क किनारे छायादार पेड़ों का सवाल है, विकास के चलते आज वहां पेड़ों का अकाल दिखाई देता है। जिधर भी जाओ वहां सर्वत्र हजारों की तादाद में सड़क किनारे कटे पेड़ों के ठूंठ ही ठूंठ पड़े दिखाई देते हैं। हम यह कभी नहीं सोचते कि जीवन के लिए हरियाली कितनी जरूरी है। इसके बिना मानव जीवन की कल्पना ही बेमानी है। इसलिए यदि हम पृथ्वी को हरा-भरा देखना चाहते हैं तो उसे हरित संपदा से पूर्ण बनाना हमारा पहला लक्ष्य होना चाहिए। वरिष्ठ पत्रकार, प्रसिद्ध लेखक और पर्यावरण पर अपनी पैनी नज़र रखने वाले रावत जी का हमने शुक्रिया अदा किया और अवाम तक उनकी बातें पहुँचाने का निर्णय हमने भी किया।