भावनात्मक स्वास्थ्य (Emotional Health)


प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान


daylife.page


जीवन में सफलता के लिए सर्वाधिक योगदान बौद्धिक विकास का होता है। आज मनोवैज्ञानिक यह मानने लगे हैं कि जीवन में सफलता हेतु बौद्धिक विकास की भूमिका मात्र 20 प्रतिशत ही है। 80 प्रतिशत भूमिका भावात्मक विकास की है। भावात्मक बुद्धि मुख्य रूप से निम्नलिखित तत्वों से निर्मित होती है- जो व्यक्ति अपने प्रति जागरूक होता है, स्वयं का निरीक्षण करता है, अपने भावों केा समझता है, वह उसमें परिवर्तन करने में भी सक्षम हो जाता है। स्वयं के प्रति जागरूकता, भावात्मक परिष्कार भावात्मक विकास एवं भावात्मक संतुलन का आधारभूत सूत्र है। जीवन एक संघर्ष है। किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति या इच्छाओं की आपूर्ति में अनेक बाधाएं आती है। जीवन में उतार-चढ़ाव भी आते रहते हैं। उस समय हमारे भीतर कितनी समता रह पाती है? कितना संतुलन रह पाता है? यही वह परीक्षा की घड़ी भी होती है। इससे ही हमारे सुदृढ चरित्र का पता लगता है। जो व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थितियों का वस्तुपरक सकारात्मक दृष्टिकोण से सतत जागरूक रहकर मूल्यांकन करता है वह जीवन में आने वाली चुनौतियों को सहज रूप से स्वीकार कर उससे निपटने में सक्षम हो जाता हैं।



सत्संग, एकान्तवास, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि इसमें बहुत सहायक सिद्ध होते है। इनसे व्यक्ति दुश्चिन्ता, अवसाद अथवा निराशा से उबर जाता है। जब कोई व्यक्ति बूरा काम करता है तो उसकी चेतना उसे रोकने की कोशिश करती है किन्तु वह उसे देखा-अनदेखा कर देता है। यह माना जाता है कि हर व्यक्ति एक निश्चित उद्देश्य को लेकर इस पृथ्वी पर जन्म लेता है। वह अपने इस उद्देश्य का ज्ञान स्वयं के निरन्तर सम्पर्क एवं अन्दर से आने वाली स्वतः स्फूर्त प्रेरणाओं को सुन कर ही कर सकता है। भीतर से आने वाली प्रेरणाएं किसी भी बड़ी उपलब्धि का सबसे बड़ा आधार होती है। प्रत्येक बड़ी उपलब्धि के लिए स्पष्ट लक्ष्य एवं निरन्तर आशावादी दृष्टि की आवश्यकता होती है। वह व्यक्ति को अन्तः प्रेरणा से उपलब्ध होती रहती है। ऐसा व्यक्ति यह अनुभव करता है - ‘‘मुझे यह करना है। और यह मैं कर सकता हूं।’’ वह अपनी हर असफलता से सीखना है, रास्ता खोजता है एवं आगे बढ़ जाता है। बीज से फल प्राप्ति तक व्यक्ति का धैर्य रखना होता है। सतत् पुरूषार्थ द्वारा बीज से निकले अंकुरों का सिंचन, पल्लवन, पोषण तथा सुरक्षा करनी होती है।



आवेग और आवेश, विकार और वासनाएं, अहंभाव व कुटिल व्यवहार, लोभ और लालच वर्षो की तपस्या को क्षण भर में राख कर रख देते हैं। अधीरता ला देते है। अतः स्वयं के संवेगों का जागरूकता के साथ परिष्कार, रेचन, मार्गान्तरीकरण व उदात्तीकरण के द्वारा उन पर नियंत्रण कौशल को विकसित किया जा सकता है। यह जीवन में सफलता के लिए अत्यन्त आवश्यक है। पारस्परिक सौहार्द एवं सम्पर्क बौद्धिक दक्षता में चार चांद लगा देते है। बहुत सारे बौद्धिक क्षमता से युक्त व्यक्ति जब तकनीकी कठिनाई का अनुभव करते हैं, वे दूसरों से सहयोग मांगते हैं तब उन्हें सहयोग कम प्राप्त होता है। परन्तु उनमें से कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें तुरन्त सहायता मिल जाती है। क्योंकि ऐसे लोग सम्पर्क करने व सम्बन्धों को बनाये रखने में निपुण होते हैं। फिर उनकी बौद्धिक क्षमता कितनी भी क्यों न हो। भावात्मक रूप से विकसित व्यक्ति की एक अलग ही पहचान होती है। संवेग एक जटिल भावात्मक प्रक्रिया है।



भाव संवेग की ही पूर्व अवस्था होती है। भावों में उफान के पश्चात् संवेग की अवस्था आती है। संवेग बाह्य परिस्थिति या अन्तः मनस्थिति के प्रति तीव्र प्रतिक्रियाएं है। इसके कारण व्यक्ति में बाह्य एवं आंतरिक दोनों प्रकार के परिवर्तन होते हैं। यह कहा जाता है कि क्रोध हमारी इच्छाओं में रूकावट के कारण होने वाली प्रतिक्रिया है। भय हमारी परिणामों के प्रति आशंकाओं की प्रतिक्रिया है। सहानुभूति एवं प्रेम के अभाव की प्रतिक्रिया दुःख है। खुशी, आनन्द, प्रसन्नता सब सकारात्मक प्रतिक्रियाएं हैं। संवेगों की तीव्र प्रतिक्रियाओं के कारण व्यक्ति के भाव जगत् में असंतुलन पैदा हो जाता है। इससे सम्पूर्ण व्यक्तित्व प्रभावित होता है। व्यक्ति अपनी संवेगात्मक प्रतिक्रियाओं की अभिव्यक्ति या प्रबन्धन अनेक रूपों में कर अपने आपको शान्त, हल्का व तनावमुक्त करने का प्रयास करता है। क्रोध, मान, माया व लोभ इन चारों को आध्यात्मिक या आन्तरिक दोष कहा गया है। ये चारों ही भावात्मक रुग्णता के मूल कारण भी है।



भौतिकतावादी जीवनशैली और विलासमय जीवन पद्धति से भावात्मक अस्थिरता और मनोविकारों की निरन्तर वृद्धि हो रही है। तनाव, चिन्ता, भय, अवसाद, निराशा, कुण्ठा, मिर्गी, आक्रामकता, क्रूरता, ईष्र्या आदि समस्याएं बेतहाशा बढ़ रही है। इससे समाज भी रुग्ण हो रहा है। समाज में भी हिंसा, आतंक, अपराध, बलात्कार, चोरी, भ्रष्टाचार आदि बढ़ रहे है। वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्री सभी इन समस्याओं से चिन्तित हैं। इनसे निपटने के लिए नित्य नये प्रयोग हो रहे हैं। औषधियों का निर्माण हो रहा है। प्रत्येक व्यक्ति के चारों ओर रश्मियों का एक वलय होता है। उसे आभामण्डल कहते हैं। अच्छे रंगों के ध्यान से हमारा आभामण्डल बदलता है। आभामंडल के बदलने से लेश्या बदलती है। लेश्या परिवर्तन से भावधारा बदलती है। मानसिक दुर्बलता भी समाप्त होती है। व्यक्ति मानसिक और भावात्मक रूप से स्वस्थ बनता है। इसका पारिवारिक व सामाजिक स्वास्थ्य पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है। (लेखक के अपने विचार हैं)