प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान
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भारतीय संस्कृति में परोपकार की महिमा का गुणगान हुआ है। परोपकार का तात्पर्य है निष्काम भाव से दूसरों का उपकार करना। स्वार्थ और परार्थ से यह विश्व बना है। स्वार्थ का मतलब होता है सबकुछ अपने लिए करना, अपने परिवार के लिए करना, अपने सगे-संबंधियों के लिए करना। स्वार्थ में अपना हित चिंतन प्रदान होता है। परार्थ ठीक इसके विपरीत है। परार्थ ही परोपकार है। परोपकार में हम अपना हित छोड़कर दूसरों के लिए कार्य करते है। शास्त्रों में परोपकार की महिमा का वर्णन खुब किया गया है। कहा गया है हाथ की शोभा दान देने से है न कि कंगन पहनने से। वाणी की शोभा हित वचन बोलने में है न कि बुरा वचन। बुद्धि का कार्य रचनात्मक विश्व का निर्माण करने में है न कि विध्वंसात्मक कार्य करने में। मानव और प्रकृति एक-दूसरे के पूरक है। मानव का कामा स्वार्थ और परार्थ दोनों प्रकार का होता है। किन्तु प्रकृति परोपकार ही करती है और अपना सब कुछ मानव के लिए न्यौछावर कर देती है। नदियां परोपकार के लिए ही बहती है। उसका स्वादपूर्ण और मीठा जल मानव, जीव-जन्तु, पशु-पक्षी सभी पीकर अपने जीवन का निर्वाह करते है।
वृक्षों में लगा हुआ फल सभी प्राणी अपने इच्छानुसार खाते है। वृक्ष स्वयं फल नहीं खाता, नदियां स्वयं जल नहीं पीती, बल्कि परोपकार के लिए ही प्रकृति कार्य करती है। पृथ्वी के गर्भ में समाया हुआ खनिज पदार्थ किसके लिए है? निश्चित ही यह मनुष्यों के लिए है। अतः इनका उपयोग मानव को सावधानी पूर्वक करना चाहिए और अपनी आवश्यकतानुसार ही इन्हें खर्च करना चाहिए। किन्तु आज मानव की प्रवृत्ति ऐसी हो गयी है कि वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अंधाधुंध इसका दोहन कर रहा है। खनिज पदार्थ तो सीमित है। अगर इसी प्रकार से इसका दोहन होता रहा तो निश्चित ही एक दिन पृथ्वी का खजाना खाली हो जायेगा और वह इसकी पूर्ति कैसे करेगी। मानव का यह कर्तव्य है कि वह स्वार्थ को छोड़कर परार्थ के लिए दोहन बंद करे और जहां तक हो सके जितना ग्रहण करे उससे अधिक देेने का प्रयास करे। तभी परोपकार कि सार्थकता है। परोपकार का क्षेत्र बहुत ही विस्तृत है। यह सृष्टि ही परोपकार के ऊपर टिकी हुई है।
श्रमशील मानव का यह कर्तव्य है अपने श्रम के द्वारा वह परोपकार करे। जिसके पास धन है वह धन देकर आर्थिक सहायता देकर लोगों की सेवा करे। महात्मा गांधी ने इसके लिए कए सिद्धांत निश्चित किया था- ट्रस्टीशिप का सिद्धांत। महात्मा गांधी का मानना था कि पूजीपति अपने धन का उपयोग ट्रस्ट के माध्यम से सामान्य जनता के लिए करे। वे यह न समझे कि धन उन्हीं का है जितनी आवश्यकता उनकी है उतना वे उपयोग करे शेष धन का प्रयोग समाज सेवा, शिक्षा, चिकित्सा और अन्य कार्यों में खर्च कर परोपकार का दृष्टांत समाज के सामने प्रस्तुत करे। धन का उपयोग घर में भरकर रखने के लिए नहीं बल्कि समाज सेवा के लिए होना चाहिए। आज बहुत सी संस्थाएं ऐसी है जो परोपकार के लिए कार्य कर रही है। ‘नारायण सेवा संस्थान उदयपुर’ एक ऐसी संस्था है जहां पर निःशुल्क पोलियोग्रस्त बच्चों का इलाज किया जाता है। इस संस्थान में भारत ही नहीं विदेशों से भी पोलियोग्रस्त बच्चे आते है। उनका इलाज, खान-पान निःशुल्क होता है। इसी प्रकार भारत में अनेक ऐसी संस्थाएं है जो समाज सेवा के द्वारा परोपकार में लगी है।
हमारे देश में सरकार भी अपना सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करते हुए जगह-जगह मूक, अंध, बधिर, विद्यालय खोलकर निःशुल्क रूप से असहाय बच्चों का पालन-पोषण कर उन्हें राष्ट्र की मुख्य धाराओं में जोड़ती है। हम देखते है कि गर्मी के दिनों में जगह-जगह पशु-पक्षियों को पीने के लिए जल की व्यवस्था समाज की तरफ से की जाती है जिससे लोग अपनी प्यास बुझा सके। सार्वजनिक स्थानों पर जल व्यवस्था करके लोग परोपकार का ही उदाहरण प्रस्तुत करते है। गर्मी के दिनों में रेलवे स्टेशनों पर स्वयंसेवी संस्थाएं जल की व्यवस्था करती है और जैसे ही ट्रेन स्टेशन पर पहुंचती है उनके स्वयंसेवक जल लेकर लोगों को पिलाकर उनकी प्यास शांत करते है। प्राकृतिक आपदा के समय स्वयंसेवी संस्थाएं अपने उत्तरदायित्व को समझते हुए पूर्ण रूप से समर्पित रहती है।
आपदा के समय जिसको जिस चीज की आवश्यकता होती है उन्हें वह सभी चीजें उपलब्ध करायी जाती है। जिससे यह विश्वास हो सके कि पूरा देश हमारे साथ है। परोपकार की भावना जीयो और जीने दो से ओतप्रोत है। विश्व में जितने भी धर्म है वे परोपकार की ही शिक्षा देते है। धर्म का तात्पर्य ही है स्व स्वभाव में स्थित होना। धर्म हमें यह शिक्षा देता है कि यदि आपका पड़ोसी दुःखी है अभावग्रस्त है तो आपका यह कर्तव्य है कि यथासंभव सहायता देकर उसके दुःख को दूर करो। समाज में आजकल दहेज प्रथा का दानव ऐसा व्याप्त है कि साधारण लोग अपनी बच्चियों का विवाह धनाभाव के कारण नहीं कर पा रहे है। समाज के धन सम्पन्न और पूंजीपतियों का यह पुनीत कर्तव्य है कि वे ऐसी बच्चियों का विवाह कराकर पुण्य का कार्य करे।
आजकल अनेक स्वयंसेवी संस्थाएं भी इस कार्य में आगे आ रही है। प्रायः यह देखा जाता है कि समाज में हर वर्ग के लोग सामोहिक विवाह का आयोजन कर फजूल खर्च से बच रहे है। परोपकार का यह एक अच्छा दृष्टांत समाज के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है। समाज का उत्तरदायित्व है कि वह ऐसी व्यवस्था कराये जिससे अभावग्रस्त लोग शिक्षा, चिकित्सा और भोजन का प्रबंध कर सके। (लेखक का अपना अध्ययन एवं विचार हैं)