भाग - 1
उफ्फ.... घर मे कैद होकर रह गयी ज़िन्दगी.... कोई बेसबब तो कोई बेहिसाब... कोई बेताब तो कोई चुप.... कोई हैरान तो कोई परेशान....कुछ दोस्त ज़िन्दगी में हबीब बन गए तो कुछ आहिस्ता,आहिस्ता बिछड़ गए... कुछ दिल से निकल गए तो कुछ दिल से न गए...
एक निराशा,बोरियत,कुछ खोने का ग़म, तो एक अनकहा दर्द..... क्या करें... क्या न करें... अनुभूतियों के अक्षांश नापे नही जा सकते न.... चांदनी रात में भीगी पलकों की कश्तियाँ अश्कों के समंदर में बेवजह इधर से उधर डोलती रहती है ,बिना लक्ष्य के.....
सूखी ऊसर धरा सी चोटग्रस्त संवेदनाएं विचार शून्यता की स्थिति में लाकर खड़ा कर देती है.... लिखती हूं तो शब्द भटक जाते हैं... हड़ताल पर उतर आते हैं.... कलम अनमनी हो जाती है.... डायरी के पन्ने फड़फड़ाने लगते हैं...
मृतप्रायः मन मे सृजन की संभावनाए बड़ी मुश्किल लग रही... फिर भी...हिम्मत जुटाकर, तमाम विसंगतियों से जूझने के बाद आज वापस मुखातिब हूँ आप सबसे...
धीरे धीरे अहसासों के नूपुरों पर जज़्बातों की रुनझुन शुरू हो ही जाएगी...देखे कब किस दिशा से कोई अलमस्त हवा का झोंका आएगा आह्लादित करने वाले किसी मेघ पाहुन को लेकर.... कब दस्तक होगी भावों के बन्द कपाट पर... हो सकता है तब कोई सोता फूट पड़ेगा अचानक मनमरु को संजीवनी देने.... तब मेरी कलम थिरक उठेगी.... और मैं आऊंगी फिर लौटकर...
लेखिका : नीलम कटलाना
प्रतापगढ़