आज भी बेमानी है श्रमिकों के कल्याण उत्थान की आशा    

(डे लाइफ डेस्क)


आज श्रमिक दिवस है। सर्वत्र श्रमिक दिवस की शुभकामनाएं दी जा रही हैं। लेकिन क्या किसी ने यह सोचने का प्रयास किया कि जिन उद्देश्यों-लक्ष्यों की प्राप्ति की ख़ातिर श्रमिक दिवस की शुरूआत हुयी थी, वह संभव हुयी। पूँजीवादी ,सरमायेदारी और सामंती व्यवस्था के चलते आज भी श्रमिक उनसे कोसों दूर है। वह शोषण, दमन और उत्पीड़न का शिकार है। असंगठित क्षेत्र इससे सबसे अधिक पीड़ित है। इस सबसे मुक्ति के लिए वह आज भी संघर्षरत है और किसी मसीहा की तलाश में है। 


वैश्विक महामारी के इस दौर में जिसमें वह अकथनीय दुरूह, विषम और अकल्पनीय समस्याओं का सामना कर रहे हैं, श्रमिक दिवस की सार्थकता की कल्पना ही बेमानी है। श्रमिकों की बदहाली इसका ज्वलंत प्रमाण है। 


इस दिवस की सार्थकता तभी संभव है जबकि हम उनके सर्वागीण विकास की दिशा में कुछ कारगर करने में समर्थ हों और अधिक नहीं तो उन्हें और उनके परिवार को भूखों मरने से बचाने में अपना योगदान दे सकें। सही मायने में श्रमिक दिवस की सार्थकता तभी सिद्ध होगी। (लेखक के अपने विचार हैं)



लेखक :  ज्ञानेन्द्र रावत
वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।