ऐसा लगता है कुछ समय से प्रकृति और इंसान के बीच शतरंज का खेल चल रहा था। इंसान अपने स्वार्थ, लालच और अहम् में प्रकृति को हराने के लिए प्रदूषण, हिंसा, अराजकता जैसे सब मोहरों का इस्तेमाल करता रहा प्रकृति ने भी बाढ़, दावानल इत्यादि छोटे-छोटे मोहरों से इंसान को चेतावनी दी, लेकिन इंसान नहीं माना | और फिर अचानक प्रकृति ने ऐसा दांव खेला कि बाज़ी पलट गयी। दो महीने पहले समाचारों में दिखाए जाने वाले विभिन्न देशों के सैन्य-बल और परमाणु-हथियारों के आंकड़े, अब कोरोना संक्रमित और कोरोना से मरने वालों के आंकड़ों में बदल गए। परमाणु बम का बल हो या दौलत का महल, कोई भी इस भयानक विपदा से बचा नहीं पा रहा है स्थिति।
गंभीर है, बहुत गंभीर ! विपदा तो भयानक आयी है, पर लगता है, हमें सबक सिखलाने के लिए आई है | इस विपदा का दूसरा पहलू देखें तो प्रकृति को फिर से जीते हुए पायेंगे – खुली प्रदुषण-रहित हवा, साफ़ हिलौरे लेते हुए समंदर, चहचहाते पंछी। हमने मानव बन कर बरसों इस धरती का मान लूटा है, हम अपने अहम् में ये ही भूल गए कि हमारे प्राण तो मिट्टी में ही बसते हैं। अब मानो ये प्रकृति, एक कीटाणु के दम पर अपना मान वापस पाने के लिए आतुर है। क्या ये एक नवयुग की दस्तक है? क्या एक नवयुग आने को है? यदि हम भी “जीओ और जीने दो” के सिद्धांत को फिर अपना लें तो इस खुशनुमा प्रकृति का हिस्सा बने रह सकते हैं और सचमुच एक नए युग में प्रवेश कर सकते हैं।
आज अपनी ही भूल के कारण, हम मानव अपने घरों में कैद हैं। किन्तु, ये सूरज, ये पवन, ये पंछी, ये चमन सब आज़ाद हैं। हम अभी तक स्वयं को आज़ाद समझ रहे थे, लेकिन किस कीमत पर? गहराई से सोचें तो क्या हम सचमुच आज़ाद थे ? और आज जब हमें लगता है कि हम कैद हैं तो हमको किसका बंधन है? क्या ये बंधन चारदीवारी का है या हमारे मन का?
कोरोना महामारी के इस वैश्विक संकट काल में यह अति-आवश्यक है कि हम जीवन के मूल-मन्त्रों को समझें। ऐसे समय में स्व-अनुशासन की बहुत अहम् भूमिका है। हम भारतवासियों ने हमेशा ही आपसी प्रेम से और एकजुट रहकर सदियों से जाने कितनी मुश्किलों को जीता है। इस संकट की गंभीरता को समझ कर स्व-अनुशासित रहकर अपने, अपने परिवार, और देश के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करें | हम दूर रहकर भी दिल से एकजुट होकर रहें, एक दूसरे को हर संभव सुरक्षा और संबल दें। अपने हृदय की गहराई में उतर कर ध्यान द्वारा अपनी आंतरिक शान्ति और आत्मबल को बनाये रखें। हमारी भारतीय संस्कृति में जो आध्यात्मिक जीवन का महत्व रहा है, उसी जीवन शैली को फिर से अपना लें तो हमारे द्वार पर सचमुच एक नवयुग का आगमन होगा। (लेख में लेखिका के अपने विचार हैं)
लेखिका : डॉ. सरिता अग्रवाल
जयपुर