पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल पर विशेष
आज पृथ्वी दिवस है। इस संदर्भ में विचार करने से पहले हमें महात्मा गांधी के आज से 111 साल पहले कहे गये संदेश के भावार्थ को समझना होगा। उन्होंने कहा था कि धरती के पास मानव की जरूरतों को पूरा करने के लिए काफी कुछ है, लेकिन उसके लोभ को पूरा करने के लिए कुछ भी नहीं है। इस बारे में पर्यावरणविद व राष्ट्रीय पर्यावरण सुरक्षा समिति के अध्यक्ष ज्ञानेन्द्र रावत का कहना है कि असलियत में आज उसी मानवीय लोभ, प्रकृति की अनदेखी के चलते जहां मानवता और धरती के बीच टकराव देखने को मिल रहा है, वहीं धरती का असंतुलन एक खतरनाक मोड़ पर आ पहुंचा है। इसने धरती को विनाश के कगार पर पहुंचा दिया है।
बीते हजारों सालों में वह चाहे खेती हो, हरियाली के तौर तरीकों, कंक्रीट या धातुओं से होने वाले निर्माण, वैज्ञानिक, रासायनिक, औद्यौगिक बदलाव हों, बढ़ती आबादी के कारण बढ़ते शहरीकरण या फिर मानवीय जीवन शैली में आये बदलाव से आये सामाजिक ढांचे में हुए बदलावों ने धरती और पर्यावरण पर काफी दुष्प्रभाव डाला है।अब यह जगजाहिर है कि प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा उपयोग , भौतिक सुख संसाधनों की चाहत में बढोतरी के चलते अंधाधुंध प्रदूषण के कारण जलवायु में बदलाव आने से धरती तप रही है। इस सबके लिए मानवीय गतिविधियां ही जिम्मेदार हैं। यह जानते समझते हुए भी धरती के संसाधनों का क्षय और क्षरण बेरोकटोक जारी है।
यह समूचे विश्व के लिए चिंताजनक और शोचनीय समस्या है। वायुमंडल में छोड़ी जा रही ग्रीनहाउस गैसों के कारण प्रकृति का मिजाज, मौसम, मानसून की दशा, दिशा और चरित्र बदल रहा है। हम यह कदापि नहीं सोचते कि धरती की बेहतरी का जिम्मा हम सबके कंधों पर है। यदि वातावरण में कार्बन डाई आक्साइड का उत्सर्जन इसी तरह बढ़ता रहा तो हालात और बिगड़ जायेंगे, उस दशा में हुए नुकसान की भरपाई में हजारों लाखों साल लग जायेंगे।
इसलिए सरकार कुछ करे या ना करे, हमें अपने स्तर पर प्रयास करने होंगे। सबसे पहले अपनी जीवन शैली बदलें, बिजली का बेलगाम इस्तेमाल बंद करना होगा, अधिकाधिक पेड़ लगाने होंगे, ताकि ईंधन के लिए उनके बीज, पत्ते, तने काम आयें और हम धरती के अंदर गड़े कार्बन को वहीं रखकर वातावरण को बचा सकें। तभी धरती बचेगी। यदि ऐसा करने में हम नाकाम रहे तो आने वाले दिनों में इंसान क्या, जीव जंतु, वनस्पतियों-प्रजातियों और प्राकृतिक धरोहरों तक का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। (लेखक के अपने विचार हैं)
लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत
पत्रकार, पर्यावरणविद
(गाज़ियाबाद)