सुनामी समुद्री किनारों पर आये बदलाव का दुष्परिणाम परिणाम 


  
आज के दौर में सुनामी एक ऐसा शब्द है, जिसके बारे में अब ऐसा लगता है कि जैसे यह हमारी जिंदगी में बरसों से आता रहा है। देखा जाये तो जब घटनाएं इस तरह हो जाती हैं कि वे अपने साथ भाषा या शब्द का रूप भी खड़ा कर दें तो वे बहुत ही जानी-पहचानी सी लगती हैं। जिस भूकंप ने लहरें पैदा कीं और जिन लहरों ने लाखों जिंदगियां निगल लीं, वह अब एक भयावह मुहाबरा बन गया है। असलियत यह है कि मनुष्य के पास प्रकृति की इस प्रकृति के अलग-अलग अनुभव हैं। वह सीखता है, बढ़ता है, इस बीच वह अनगिनत चुनौतियां स्वीकार करता है और फिर वह अपनी जिजीविषा से उठ खड़ा होता है। कुदरत के साथ रिश्तों पर ऐसे वक्त में और गहरे से बात करना बेहद जरूरी हो गया है। यहां यह उल्लेख करने का मेरा आशय यह है कि मौजूदा समय प्रकृति और मानव के विलगाव का समय है। प्रकृति और मनुष्य के बीच, विज्ञान और मनुष्य के बीच, समय और मनुष्य के बीच हर समय, हरेक दौर में इस तरह के अजूबे घटित होते रहे हैं। प्राकृतिक आपदाओं रूपी यह अजूबे कोई नई बात नहीं है। मानव जीवन प्रारंभिक कालों से इसका शिकार होता रहा है। असलियत तो यह है कि कभी-कभी जो सहज गठित होता है, वही हमें अजूबा लगने लगता है। कारण हम सहज को भौतिक युग की चकाचैंध कहें या उसमें आकंठ डूब जाने के चलते भूल चुके होते हैं। विडम्बना देखिये कि जब हम अंडमान निकोबार की जनजातियों के विलुप्त होने की आशंकाएं व्यक्त कर रहे थे, उस समय वह आधुनिक सरंजाम से दूर रहकर भी प्रकृति के इतने करीब थे कि उन्होंने इस जलजले की आहट सबसे पहले उन्होंने ही सुनी। वे बच गए क्योंकि प्रकृति की आहट को सबसे पहले वह सुन सके और इसका सबसे बड़ा और अहम् कारण यह था कि वह कोलाहल नहीं चाहते। इसमें दो राय नहीं कि सुनामी ने हमें मानवता , अंर्तराष्ट्र्ीय व्यवहार और विज्ञान के परीक्षण का अवसर प्रदान किया है। यह विमर्श का विषय है।


यदि हम इतिहास पर दृष्टि डालें तो हमारे यहां प्रलय का जिक्र पुराणों में मिलता है। ईराक में तूफाने नूंह आया, हमारे यहां भागवत पुराण में प्रलय का उल्लेख है। कुदरत ने कई बार तबाही मचाई है। भूकंप और समुद्री तूफानों के परिणामस्वरूप धरती पर कई बार तब्दीलियां हुईं हैं। हम न तो इतिहास को भुला सकते हैं और न ही पूरे तौर पर कुदरत के कहर का ही खात्मा कर सकते हैं। आज जबकि वैज्ञानिकों ने बिल्ली और भेड़ की क्लोनिंग कर ली है, वह व्यक्ति के मर जाने पर उसी शक्ल, रंग और स्वभाव का व्यक्ति पैदा कर सकते हैं, तो क्या इंसान मृत्यु पर काबू पा सकेगा और क्या इस तरह की आपदाओं को रोका जा सकता है। लगभग दो दशक से पूर्व यूनीवर्सिटी कालेज, लंदन के प्रोफेसर बिल मैक्वायर ने बहुचर्चित चेतावनियों को आधार बनाकर ऐसी महा सुनामी लहरों की आशंका व्यक्त की थी।


उनका मानना है कि आज के समय में जिस सुनामी की चर्चा सबसे अधिक है, वह अटलांटिक या हिन्दमहासागर के कैनोरी क्षेत्र के पालमा ज्वालामुखी टापू के टूटन से जनित हो सकती है। जरूरत इस बात की है कि जिस महा प्रलय की समुचित पूर्व चेतावनी के लिए जितने प्रयास जरूरी हैं, वह समय पर क्यों नहीं किए जा रहे हैं। पालमा टापू का अध्ययन बताता है कि संभावित सुनामी की विनाशक लहरें कितने समय में किस क्षेत्र में पहुंचेंगी, इसका पूर्व अनुमान लगाकर जीवन रक्षक चेतावनी दे सकते हैं। लेकिन हम अनावश्यक कामों में उलझे रहते हैं और प्राकृतिक आपदाओं से लाखों लोगों का जीवन बचाने के अवसर का सदुपयोग तक कर पाने में असमर्थ रहते हैं। 


यह कटु सत्य है कि आधुनिक विज्ञान भी गृहीय परिघटनाओं को समझने में असमर्थ है, उस स्थिति में एैसी विनाशकारी आपदाओं को कैसे टाला जा सकता है। ऐसी घटनाएं तो भविष्य में भी होंगीं। पर्यावरणीय खतरे बढ़ेंगे। फिर भूगर्भीय गतिविधियों पर हमारा नियंत्रण है नहीं। उनको रोकना असंभव है। ऐसी स्थिति में समय रहते उसे संभालने की कोशिश तो कर ही सकते हैं। ताकि आपदा से कम से कम मानव जीवन, चल व अचल संपत्ति तथा अन्य संसाधनों की हानि न हो। अक्सर यह कहा जाता है कि समूचे विश्व में वैज्ञानिक-तकनीकी ज्ञान भंडार के स्वामी, सीमांती शोध की अद्भुत क्षमता और अन्वेषण में विशेष दक्षता एवं परमाणु शक्ति संपन्न होने के बावजूद हम संकट की घड़ी में कर्तव्यविमूढ़ क्यों हो जाते हैं। आपदाओं के समय हमारा मौसम विभाग अपने अनुभव को क्यों भूल जाता है।


अक्सर मौसम विभाग की चेतावनियां हमारे यहां झूठी साबित होती हैं। क्या जिन चीजों पर हमारा बस है, उनके बारे में उदासीनता अपराध से कम नहीं है। सुनामी के सर्वनाश ने इन तथ्यों को हृदयविदारक ढंग से उजागर कर वैज्ञानिकों की प्रतिभा और सामथ्र्य को नौकरशाहों के चंगुल से छुड़ाने की जरूरत पर बल दिया है। हमारे यहां धन का अभाव नहीं है, यदि है तो वह सुशासन और सुशासकों का अभाव है। जब शासक की कथनी और करनी में अंतर हो तो नौकरशाहों और स्थानीय प्रशासन के कर्मचारियों से सुरक्षा और न्याय की आशा कैसे की जा सकती है। हमें सदैव यह याद रखना होगा कि कुदरती कहर की पूर्व चेतावनियां उतनी जानें नहीं बचातीं जितनी कि कहर के बाद उससे जूझने की तैयारी बचाती है। असली परीक्षा आपदा आने के बाद राष्ट्र्ीय प्रतिक्रिया में होती है। हादसे के बाद भावात्मक प्रतिक्रिया होती है जिससे पुर्ननिर्माण और राहत के समन्वय में वितरण की समस्याएं जन्म लेती हैं। आपदा प्रभावित लोगों के यथाशीघ्र पुर्नवास की समस्या भी बेहद जटिल होती है। इसमें अर्थ और संसाधन की उपलब्धता की भूमिका अहम होती है। इस सच्चाई को दरगुजर नहीं किया जा सकता।


पर्यावरण कार्यकर्ता होने के नाते मेरा यह कहना है कि यदि हम चाहते हैं कि हमारी धरती निरापद घूमती रहे और हर दिन नया साल आये, तो हमें हर तरह से पृथ्वी और उसके तमाम संसाधनों, संपदा की हिफाजत करनी होगी ताकि हमारे नाकारेपन से ऐसा कुछ ना हो जाये जिससे हमारी पृथ्वी पर आपदा आये और समूचे ब्रह्मांड में पृथ्वी पर विद्यमान जीवन को करोड़ों वर्षों से जारी वातावरण का सुरक्षा कवच सूर्य और अन्य तारों, गृहों के विकिरण से बचाता रहे। दरअसल तटवर्ती विनियामक जोन की दिशा में की गई घोषणाएं और पर्यावरण संतुलित रखने के लिए बनाए गए प्रावधानों को जमींदोज किये जाने का ही दुष्परिणाम सुनामी आपदा के रूप में हमारे सामने आया। आवश्यकता इस बात की है कि पर्यावरण से जुड़े कानूनों का कड़ाई से पालन किया जाये। लेकिन मौजूदा समाज द्वारा अपनाए गए विकास के तौर-तरीकों के चलते आपदाओं को रोक पाने की आशा बेमानी सी लगती प्रतीत होती है। आज सबसे बड़ी समस्या जलवायु परिवर्तन की है। जरूरत है आपदाओं से निपटने की दिशा में नीति निर्माण के समय आपदाओं के साथ जीने की आवश्यकताओं का ध्यान रखने की और उसी के अनुरूप नीति निर्माण करने की। 


इतिहास गवाह है कि पश्चिमी समाज ने हमें अधिकाधिक अन्वेषक दिये हैं। प्राकृतिक रहस्यों पर से पर्दा हटाने वालों को मध्य युग में क्रूर शासकों द्वारा जमींदोज किया जाता रहा है। इसके बावजूद यह सिलसिला थमा नहीं है। अनवरत जारी है। यही नहीं आपदाओं के दौरान मदद करने वालों का भी यही हाल है। उनको नाम नहीं चाहिए। उनका अदम्य साहस और हर भले काम के लिए जीजान से जुट जाने की भावना ही हमारे लिए आशा की किरण है। 



प्राकृतिक आपदाओं से बचाव कैसे किया जा सकता है, बीते दशकों से मिली चेतावनियों को नजरअंदाज करना कितना घातक हो सकता है, आज से पन्द्रह साल पहले सुनामी नामक आयी यह आपदा इसकी जीती जागती मिसाल है। इसने लगभग डेढ़ लाख से अधिक लोगो को अपने झंझावात के थपेड़ों में लील लिया और इससे अरबों की संपत्ति का नुकसान हुआ। लाखों लोग खले आसमान के नीचे रहने को मजबर हुए। मानवीय सहायता उन्हें पुर्नवास में तो सहायक की भूमिका निबाह सकती है लेकिन उन्हें अपनों से कभी मिला नहीं सकती। यहां यह घ्यान रखने वाली बात है कि अब संमंदर पहले से ज्यादा खतरनाक होते जा रहे हैं। भविष्य में सुनामी का कहर इससे भी अधिक दूर तक के क्षेत्र में फैल सकता है। इसलिए आशा की जाती है कि हमारी सरकार सुनामी के प्रकोप से सबक लेकर कुछ ऐसा करे ताकि हम अपनी सुरक्षा के प्रति भविष्य में कुछ अधिक सजग हो सकें।



ज्ञानेन्द्र रावत 
वरिष्ठ पत्रकार , लेखक एवं पर्यावरणविद्
अध्यक्ष, राष्ट्रीय पर्यावरण सुरक्षा समिति
मोबाइल: 9891573982