पनघट सूखा
धरती सुखी
देखो अंबर भी सुख रहा
कतरा कतरा पानी देखो मानव ढूढ रहा
सावन की हरियाली सूखी
चेहरे की उजियार झूठी
एक भोला , भाला बचपन था
उसपे भी अब आंधी टूटी
बात बड़ी है रूखी सूखी
चंचल मन शेरनी सी भूखी
आगें ,पीछे न सोची देखी
अपने मन की कर के देखी
भूख प्यास बीमारी देखी
घर छोड़ घरौंदा देखी
ऊंची बिल्डिंग मन का पँछी
एकाकी में रोते देखी
लेखन : ममता सिंह राठौर