आज जैसे ही तोताराम आया, हमने पूछा- तोताराम, एक छोटी-मोटी नाव कितनेक की आ सकती है ? तोताराम हँसा और बोला- क्या भांग तो नहीं खा रखी मास्टर, अपन राजस्थान के निवासी हैं जहाँ पीने को तो पानी मिलता नहीं और तू नाव की बात करता है । कहाँ चलाएगा नाव ? टीलों पर ? नाव बरामदे में स्कूटर की तरह खड़ी नहीं की जा सकती । रेल के लिए पटरियाँ चाहियें, कार के लिए गेरेज़, हवाई जहाज़ खड़ा करने के लिए हवाई अड्डा चाहिए । नाव या जहाज़ को किसी समुद्र या नदी में ही पार्क किया जा सकता है । कहाँ बाँधेगा नाव ? और फिर अपने महाकवि निराला जी ने पहले ही मना कर दिया है-
बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु ।
पूछेगा सारा गाँव, बन्धु ।
हमने कहा- तोताराम! यदि हँसी नहीं उड़ाये और किसी को नहीं बताये तो तुझे दिल की बात बताना चाहते हैं । बात ऐसी है कि पिछली दिवाली को मुकेश अम्बानी ने अपनी पत्नी की २५० करोड़ का हवाई जहाज़ और अब अनिल अम्बानी ने अपनी पत्नी को ४०० करोड़ की नाव भेंट देकर हमें भयंकर हीन- भावना से भर दिया है , सोचते है हम भी तुम्हारी भाभी को कोई छोटी-मोटी नाव उपहार में दे दें ।
तोताराम गंभीर हो गया और हमारी तरफ़ ताकने लगा । कुछ देर के मौन के बाद बोला- मास्टर अब तो हमारी उमर उस नाव को तलाशने की आगई है जिससे भवसागर पार किया जा सके । दुनियावी नावें तो अब छूटने का समय है । जिस पर भाग्य मेहरबान होता है उसे धन मिल सकता है पर सद्बुद्धि तो उसे ही मिल सकती जिस पर वास्तव में भगवान मेहरबान होता है । आजकल के जिन रईसों के चक्कर में तू पड़ गया है वे ईर्ष्या नहीं वरन दया के पात्र हैं । भाग्य ने इन्हें धन दिया है लेकिन भगवान ने उसका सदुपयोग करने की सद्बुद्धि नहीं दी । दुनिया की देखा-देखी ये लोग तमाशे में फँस गए हैं । भगवान सद्बुद्धि देता तो इस पैसे का सदुपयोग करते और आत्मसंतोष व यश प्राप्त करते । धन और सद्बुद्धि एक साथ किसी-किसी को ही मिलते हैं । ऐसे धनवानों से किसी को कोई मतलब नहीं है । लोग मनोरंजन करते हैं और भूल जाते हैं । इन उपहारों से न प्रेम पर कोई खास फर्क पड़ता है, न नींद और भूख में, न चिंताएं दूर होती हैं न ही मृत्यु का भय दूर होता है । ऐसी समृद्धि से तो एक बूँद पानी और घास की एक पत्ती का जीवन अधिक सार्थक है । जिस पेड़ के फल किसी की भूख नहीं मिटाते उस पेड़ का क्या फलना और क्या फूलना । मानव के सभी प्रयत्नों की परिणति सार्थकता में होना ही धन्यता है वरना तो क्या जीना और क्या मरना ।
तभी पत्नी चाय ले आई । तोताराम अपनी प्रतिज्ञा पर कायम नहीं रहा और बीच में ही बोल पड़ा- सुना भाभी! यह बूढ़ा तुझे अनिल अम्बानी की तरह नाव भेंट देना चाहता है । पत्नी को भी हँसी आ गयी और चाय उसकी शाल पर गिरते-गिरते बची, बोली- देवर जी, कहाँ से लायेंगें ये नाव ? पहले सारी तनखा और अब सारी पेंशन तो हमें लाकर दे देते हैं । हम तो इनके साथ पचास साल से नाव पर ही तो सवार हैं जो हिचकोले खाती-खाती अब किनारे लगने वाली है । कह दो इनसे, ज़्यादा परेशान होने की ज़रूरत नहीं है । प्यार न तो उपहारों का मोहताज़ है और न ही प्रदर्शन का । वह तो गूँगे का गुड़ है । हमें लगा, हम पूरी तरह से सामान्य हो गए हैं । (लेखक के अपने विचार हैं)
रमेश जोशी
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